ताकत औरत की
ताकत औरत की
तू बोलता है औरत कमज़ोर है!
ज़रा सहकर तो देख दर्द जुदाई का अपनों से
कर तो सहि किसी घर को अपना
तोड़ तो सहि दूसरों के लिए ख़ुद का सपना।
तू कहता है औरत गवार है
अरे सारे पढ़े लिखे बने है उस गवार के पनाह से
संस्कार जो मिला है तुझे उससे
धुंड क्या पाते तेरे मोटे किताब से?
तू सोचता है औरत कुछ बन नहीं सकती
सच तो ये है उसके बिना कुछ नहीं बन सकता
सर उठाके चलने कि तू काबिल ना बनता।
तू तो चलता है रस्ता आसान बाला
फिर भी कभी रुकता कभी संभलता
कभी कांटे पे चल के देखा है?
वो चली भी है भागी भी है
उफ़ तक ना उसके मुंह से निकला कभी
औरत का ही होता है ये ताकत सभि ।
तू कहता है औरत को शर्म नहीं आता
हां में देती हूं मंजूरी इस बात को तेरी
बे आबरू हो जाती है एक मां बनकर
अपने ख़ून से सींचती है तुम्हे पौधा समझकर
उतार देती है अपनी सरम का गहना
हो जाती है अपनी परिवार के लिए फना।
क्या मिलता है उसको अपनी बलिदान के बदले
लांछन लगता बार बार उसपे
और तुम रह जाते हो दूध के धुले।
