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Pt. sanjay kumar shukla

Abstract

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Pt. sanjay kumar shukla

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सुराही में छेद

सुराही में छेद

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मेरे गांव में एक कुम्हार,

जिसकी सुंदर सुराही बिक रही है 

और हम देख रहे हैं यार ।

मानो स्वयं ईश्वर ने रचा हो उसका मुख,

पतली गला; शमशीर सा नैनो की धार ।।

मधुशाला की प्याला सी,

सुराही का पानी लगे ।

चढ़ गई जिसको एक बार,

वे घर के चक्कर काटने लगे ।।

प्रेम का रुपयों में बिक रही थी,

चुपके-चुपके ना जाने क्यूं ?

समृद्धि संपन्न थी पर बीन पिता के,

उसकी मां भी शामिल थी ना जाने क्यूं ? 

मैंने सुना था उनकी प्रशंसा,

औरों के मुख से ।

नई नई कारीगरी थी,

मैंने भी औरों के नैनों से 

देखी कारीगरी कुछ नुस्खे ।।

चल रहा था पता,

सब को उनका भेद ।

ईश्वर की सुंदर सुराही में

पड़ चुका था छेद ।। 



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