ashok kumar bhatnagar

Inspirational

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ashok kumar bhatnagar

Inspirational

सुलह

सुलह

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जमाना हो गया है,

मुझे खुद से लड़ते, खुद से उलझते।

रोज आईने में झांकते हुए,

एक नई शिकन को दबाते हुए,

मुझे अपना ही अक्स अब धुंधला सा दिखता है।

जाने कितनी रातें गुजारी हैं,

खामोश सवालों में घिरी,

खुद से रूठे हुए,

जिन्हें अनसुना कर देने में ही राहत पाई थी।

पर आज, उस ख़ामोशी में हलचल है,

मैं अपने आप से अब सुलह करना चाहता हूँ।

थक गया हूँ हर दर्द को झुठलाने से,

हर डर को पीछे छोड़ने से,

अब तो ये मन भी तरसता है,

मुझसे ही गले मिलने को।

जो बोझ उठाए फिरता हूँ हर रोज,

उसे खुद से ही साझा करना चाहता हूँ।

चाहता हूँ अब,

अपने अंदर के घावों को मरहम देना,

जो सवाल अनकहे रहे,

उनके जवाब ढूंढ़ना।

हर हार, हर टूटन, हर तिनके को,

अब अपना बनाना चाहता हूँ।

कोशिश करूंगा फिर से मुस्कुराने की,

नया नहीं, वही पुराना बन जाने की।

सच्चाई से रूबरू होकर,

खुद को फिर से अपनाने की।

जमाना हो गया है लड़ते हुए,

अब मैं खुद से सुलह करना चाहता हूँ।


थक गया हूँ बनावटी चेहरों में छुपने से,

रंग-बिरंगी नकाबों में खुद को कैद करने से।

अब चाहता हूँ सच्चाई की उस जमीन पर खड़ा होना,

जहाँ मैं सिर्फ मैं हूँ, बिना किसी आवरण के।

जिसे झूठी तसल्लियों की जरूरत न हो,

जो अपनी खामियों को भी गले लगा सके।

मैं जानता हूँ, आसान नहीं है ये राह,

पर इस सफर में हर कदम सुकून भरा होगा।

हर घाव को सहलाते हुए,

हर दर्द को अपनाते हुए,

अपने ही दिल के सबसे कोमल कोने में,

खुद के लिए एक जगह बनाना चाहता हूँ।

अब शायद वो दिन दूर नहीं,

जब खुद को मैं बिना कसौटी के देख सकूँगा।

अपनी हंसी में खुद को पहचान सकूँगा,

हर खामोशी में भी सुकून पा सकूँगा।

जमाना हो गया खुद से जूझते हुए,

अब मैं बस खुद से प्यार करना चाहता हूँ।

ये सुलह मेरी जीत नहीं,

न कोई हार का सबब है,

ये एक नया आरंभ है,

जहाँ मैं खुद का हमसफर हूँ,

हर गिरे हुए कदम का सहारा हूँ।

अब मैं अपनी ही छाँव में सिमटना चाहता हूँ,

अपने ही वजूद को गले लगाना चाहता हूँ।

जो अधूरी सी तन्हाइयाँ हैं,

उनमें अब पूरी तरह समा जाना चाहता हूँ।

जो राहें अधूरी छोड़ दी थीं मैंने,

उन पर खुद के साथ चलना चाहता हूँ।

जमाना हो गया मुझे खुद से लड़ते-झगड़ते,

अब मैं अपनी कहानी खुद लिखना चाहता हूँ।



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