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Karan Ahirwar

Abstract Tragedy

4.5  

Karan Ahirwar

Abstract Tragedy

सुबह की रात

सुबह की रात

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रात के स्याह अंधेरे में

एक रोशनी बन के जुगनू ने

दस्तक दी मेरे दरवाजे पर

कोई रोक ना पाया

हर सुबह की तरह नहीं थी ये सुबह

मैं जागा एक नयी रात में

पूछा सोया क्यों नहीं

बरसात ने जवाब ना दिया

एक टक बरसती रही

इतनी साज दी आंखों को

अब वहां पानी की एक बूंद नहीं

लेकिन यादों का जलवा है

जलवे ने दुनिया को धोके में रखा

दिखाया खुशी का मातम सिर्फ खुद को

जनाजा भी निकाला उसने

लेकिन चार नहीं केवल दो ही थे

कंधे उसके

उठाया गोद में और बना दी मज़ार

आज कुछ फूल दिखे वहां

फूल ताज़ा थे, नमी थी उनमें


रात की चांदनी 

दोपहर की धूप

दोनों अलग - अलग खयालों में गुम थे

लेकिन आश्चर्य दोनों को था

शाम की मुलाकात का

इस सुबह की रात भयानक

दौड़े, घूमे, पूछे जमीं से

क्या आसमान है मेरे हक़ में

जवाब ना आया बस

दिल की धड़कन तेज

और पैर की कंपकंपाहट



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