स्त्री देह
स्त्री देह
क्यों लगता है तुम्हें
आह्लादित होती है स्त्री
बंधकर देह की डोर से?
क्यों लगता है तुम्हें
तुम्हारा स्पर्श ही काफी है
उसे तरंगायित करने को?
क्यों लगता है तुम्हें
प्राप्य है स्त्री केवल
भुजबल या देहाकर्षण से?
क्यों लगता है तुम्हें
सौन्दर्य स्थित है
निरवसना यौवन में?
क्यों लगता है तुम्हें
सारी मर्यादा और मान
होता है स्त्री से ही
संभवतः
तुम्हारे लिए अमरत्व
काया से काया तक की
यात्रा में निहित है
शायद
तुम्हें कभी नहीं लगा
मात्र देह नहीं है वह
दिल धड़कता है
उस देह के भीतर भी
क्यों तुम्हारी निग़ाह
अटक जाती है वहीं
जहां छिपा है स्रोत
अजस्र-अमृत धार का
जिस अमिय पान से
पा सके यह जीवन तुम?
बरगद है वह<
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विशाल बरगद
इस राह के तट पर
जो उसके सामने से
गुज़र जाता है
छाया का लालच
उसे उसके पास
खींच ही लाता है
परंतु अचानक
क्यों बदल जाता है
गात का आकर्षण
विकर्षण में?
क्यों मथने आ जाता है
अपवित्रता का बीजगणित
रजस्वला होने के क्षणों में?
रजस्वला होना कोई गुनाह नहीं
एक नैसर्गिक क्रिया है
प्रतीक है तुम्हारे सम्मान का
समय आने पर
तुम्हारे ही वजूद के लिए
इन्हीं रक्तबीजों से
जुटाती है उपादान
रजस की पीड़ा से
पाती है अभ्यास
अपनी जान पर खेलकर
तुम्हें संसार में लाती है।
मत जांचो स्त्री को
उसके कलेवर, उसके तन से
देहात्म है, जननी है
पुण्यतम है वह
इसी पुण्य से तो वो तुम्हें
भ्रूण से इंसान बनाती है!