"संदेशा...
"संदेशा...
वादे तो किए थे बहुत, साथ निभाने के,
अगर हम अकेले हमसफर होते तो क्या बात थी !
चाहने वाले तो बहुत थे शायद उनके इस जहां में,
किसी एक से भी वफ़ा निभा देते तो क्या बात थी !
जलाते हैं उंगलियां रातों में तारे गिन कर,
अगर इनमें एक दूसरे को ढूंढ रहे होते तो क्या बात थी !
इश्क के समुंदर में लगाया था गोता साथ में,
अगर किनारे भी साथ में आते तो क्या बात थी !
इस तन्हा भरी जिंदगी में बिखरे हैं मोती की तरह,
अगर धागे साथ में
पिरोते तो क्या बात थी !
आ गया समझ में जमाना अदाकारी उनकी देखकर,
अगर वो सच में अदाकार होते तो क्या बात थी !
हौसला बढ़ाते हैं खुद अपनी पीठ थपथपाकर,
अगर हाथ उनका होता तो क्या बात थी !
जमाने से लड़ भी लेते उनके खातिर,
अगर वो खुद जमाना न बनते तो क्या बात थी !
स्याही जाया हो रही है यूं शब्द लिखने में,
अगर वो बिछड़ते ही ना तो क्या बात थी,
"खैर जाने भी दो क्या फर्क पड़ता है.... !