समर्पण
समर्पण
दिनकर नित निज ऊर्जा करता,
विश्व को प्रकाश तरपन,
लहरें भी नित तट पर करती,
स्वेच्छा से स्वयं समर्पण।
तरुवर भी सदा समर्पित मनुज पर,
खटोला से अर्थी तक जीवन निर्भर उसकी शाख पर।
धरती पुत्र स्वेद की हर बूंद समर्पित करता,
धरती भी हर रज कण को,
कंचन बना अर्पण करती।
इच्छा- आकांक्षा स्त्री सभी समर्पित हो जाते अग्नि कुंड में,
समर्पित हो जाता उसका जीवन,
एक पराये आंगन में।
माता होती समर्पित,
अपने लाल की हँसी पर,
पिता हो जाता है समर्पित,
अपने लाल के सपनों पर।
समस्त सृष्टि का चक्र है,
सृजन अर्पण तरपन,
अटल अंत है बस मौत के,
आगोश में जीवन का समर्पण।