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Prashant Beybaar

Abstract

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Prashant Beybaar

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सिगरेट और मैं

सिगरेट और मैं

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बस फूँकते हो सूखी आग

जो पल भर की अंगीठी है

कभी वक़्त से घर आ

मुझे भी फूँको

सुलग रही हूँ मैं,

बरसों से धीमे धीमे।


कश की जो माला सीते हो

सीने पे कसती है, दिखता है

कभी मेरी उन साँसों को सीदों

जो तुम्हारे धुंए से उधड़ी उधड़ी हैं।


उंगली के बीच दबा जो दम भरते हो

मालूम है यह उधार का है,

तुम्हारे पूरे दम के मूल में

कुछ मेरे दम की ब्याज मिलेगी

तब हिसाब बराबर होगा।


पहले होठों से लगाते हो

फिर चप्पल से कुचल देते हो

सिगरेट की कहानी तो हुबहू

मेरी सी मालूम होती है।


काश कि मैं भी डब्बे में आती

पहले तुम्हारी क़रीब जेब में,

फिर तुम्हारे हाथों में,


कुछ ही पल में होटों पे

और आख़िर में

दिल में घर कर जाती

बिल्कुल इस कमबख्त सिगरेट की तरह।

इस कमबख़्त सिगरेट की तरह।।


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