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पं.संजीव शुक्ल सचिन

Abstract

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पं.संजीव शुक्ल सचिन

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शूल ही शूल बिखरे पड़े राह में

शूल ही शूल बिखरे पड़े राह में

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शूल ही शूल बिखरे पड़े राह में, दीनता से हमें कब उबारा मिला।


कण्टको का सफर बोझ जीवन लगे, अश्रुओं संग रहना हमें आ गया।

पूस हो माघ हो या कि मधुमास हो, विघ्न बन मेघ ही भाग्य में छा गया।

दीनता की कहानी कहूँ और क्या, बदनसीबी हमें नैनतारा मिला।

शूल ही शूल बिखरे पड़े राह में, दीनता से हमें कब उबारा मिला।।


पीर पर्वत सरीखी विकल है हृदय, अन्न का एक दाना न घर में कहीं।

मौत आती नही मांगने से हमे, अश्क पीते रहे भूख जाती नहीं।।

जन्म से ही अभागे रहे कर्म से, ईश से भी हमें बस बुहारा मिला।

शूल ही शूल बिखरे पड़े राह में, दीनता से हमें कब उबारा मिला।।


पेट खाली पड़ा कर्म में लीन हैं, भाग्य से भी अभागे, अभागे रहे।

दिन बिताया कहीं रात बीती कहीं, बस तमस का हृदय में उजाले रहे।।

कष्ट होता मुखर जब क्षुधा बेधती, भाग्य का भी कहाँ कब सहारा मिला।

शूल ही शूल बिखरे पड़े राह में, दीनता से हमें कब उबारा मिला।।


रात भर जागना अभ्र को ताकना, भाग्य को कोसना ही हमें भा गया।

पत्थरों पर पटकना सदा शीश को, कुछ मिले या नहीं मांगना आ गया।।

हे विधाता! हमें दी सजा क्यों भला, भीख को हाथ में बस कहारा मिला।

शूल ही शूल बिखरे पड़े राह में, दीनता से हमें कब उबारा मिला।


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