प्रेम का फिर कष्ट क्यों यह
प्रेम का फिर कष्ट क्यों यह
प्रेम का फिर कष्ट क्यों यह, पर्वतों सा लग रहा है।।
देख दूजा गात कामुक, मन अगन जब जग रहा है।
प्रेम का फिर कष्ट क्यों यह, पर्वतों सा लग रहा है।।
सभ्यता को छोड़ पीछे,
ताक पर सम्बन्ध रख कर।
बिन किये पड़ताल कोई,
बंध का अनुबंध रखकर।
है प्रणय पथ आज ऐसा, प्रेम ही नित ठग रहा है।
प्रेम का फिर कष्ट क्यों यह, पर्वतों सा लग रहा है।।
है तरुण मन आज विलसित,
भोग की 
;बस लालसा से।
वासना वेधित हृदय फिर,
क्यों व्यथित हैं दुर्दशा से।
जानकर परिणाम दुष्कर, क्यों भ्रमित निज पग रहा है।
प्रेम का फिर कष्ट क्यों यह, पर्वतों सा लग रहा है।।
अन्तशय्या पर पड़ी अब,
शिष्टता हो लुप्त जैसे।
पश्चिमी वायु में बहकर,
भद्रता अब सुप्त जैसे।
सद्य अनुशीलन मनन का, दिग्भ्रमित निज मग रहा है।
प्रेम का फिर कष्ट क्यों यह, पर्वतों सा लग रहा है।।