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पं.संजीव शुक्ल सचिन

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पं.संजीव शुक्ल सचिन

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सुरनदी_को_त्याग_पोखर_में_नहाने

सुरनदी_को_त्याग_पोखर_में_नहाने

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रीति की अर्थी सजाकर, सभ्यता से हो विलग हम, 

सद्य कर अभिदान पावक में  जलाने जा रहे हैं।।


     पूर्वजों  से  आज  तक भी

     जो  मिली  थीं  थातियाँ वो,

     मान  कर  सब  रूढ़िवादी 

     पग  वहाँ  से  मोड़  आये।

     मोहिनी   बदरंग   है  पर 

     नग्नता   ही  भा  रही है,

     बंध उस परिवेश पश्चिम से 

     अभी   हम  जोड़  आये।

     आधुनिक विकसित  बनेंगे 

     तज  पुरातन भद्रता  को,

सोच अपना भाग्य देखो, हम जगाने जा रहे हैं।


रीति की अर्थी सजाकर, सभ्यता से हो विलग हम, 

सद्य कर अभिदान पावक में जलाने जा रहे हैं।।


     आधुनिकता  कह  रही है 

     बंधनों  में  क्या  मिलेगा,

     त्याग  दे  हर  एक बंधन 

     और  तू  स्वाधीन  हो जा।

     तज  सकल  परिधान देशी 

     नग्न  हो  प्राधीन हो  जा।

     व्यक्त  कर  उन्मुक्तता को 

     और  तू  रंगीन  हो  जा,

     दिव्यता  जो  नव्यतम  में 

     है   नहीं   प्राचीनतम  में।

सोच को मुखरित किया निज को मिलाने जा रहे हैं।


रीति की अर्थी सजाकर, सभ्यता से हो विलग हम, 

सद्य कर अभिदान पावक में जलाने जा रहे हैं।।


     त्याग दी पुरखों कि संचित 

     संस्कारिक   सब  धरोहर,

     देखकर सम्भ्रांतता पाश्चात्य 

     की  मन  हील  गया है।

     किन्तु   अन्तर्मन   हमारा 

     नित्य  ही  संवाद  करता,

     और  हमसे  प्रश्न  एकल 

     क्या सभी कुछ मिल गया है?

     सद्य  उभरे प्रश्न का उत्तर 

     नहीं  कुछ  पास  है  पर,

सुरनदी को त्याग पोखर में नहाने जा रहे हैं।


रीति की अर्थी सजाकर, सभ्यता से हो विलग हम, 

सद्य कर अभिदान पावक में जलाने जा रहे हैं।।



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