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पं.संजीव शुक्ल सचिन

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पं.संजीव शुक्ल सचिन

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हद हुईं ---- छलते रहोगे?

हद हुईं ---- छलते रहोगे?

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हद हुईं कब तक भला तुम आप ही छलते रहोगे।।

ढोंग को यूँ ढंग में कर सम्मिलित चलते रहोगे।

हद हुईं कब तक भला तुम आप ही छलते रहोगे।।

मंदिरों  में नित्य  जाते  नेह ले बस अर्थ की।

हो सखा अनभिज्ञ तुम तो चाह है यह गर्त की।

सम्पदा की  चाह ले नीहार सम गलते रहोगे।

हद हुईं कब तक भला तुम आप ही छलते रहोगे।।

साधना से  साधने भगवान को तुम चल दिये।

मोक्ष के बदले बहुत धन मांग निज को छल दिये।

भावना ऐसी  रही  बस हाथ ही मलते रहोगे।

हद हुईं कब तक भला तुम आप ही छलते रहोगे।।

स्वर्ग का सुख त्याग कर यूँ खाक से है प्यार क्यों?

जीत के पथ से विलग यूँ ढूँढते हो हार क्यों?

ऐषणाओं की अगन  से उम्रभर जलते रहोगे।

हद हुईं कब तक भला तुम आप ही छलते रहोगे।।

बस  करो अन्त: करण से आज ईश्वर में रमो।

मुक्ति के पथ पाँव रख दो और अंगद सम जमो।

सम्पदा की चाह ले अपकर्म  में ढलते रहोगे।

हद हुईं कब तक भला तुम आप ही छलते रहोगे।।

          


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