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Shubham mohurle

Abstract

5.0  

Shubham mohurle

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शुभारंभ

शुभारंभ

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आरंभ एक था,

पर शुभारंभ बहुत जिंदगी में,

बस एक हकीकत लिखनी बाकी थी,

अपनी जिंदगी के उजुल में।


ठहरी थी जिंदगी,

पर खामोशियों से रूठकर,

उसमे भी एक सपना आया,

ओर एक शुभारंभ से जिंदगी शुुरु हुई।


जितना करना था,

उतना कर दिया,

मैंने अपने तरफ से,

फिर खुदा पर छोड़ दिया जिंदगी,

उस वजह से गिर

पड़ा अपनी नजरों में।


खुदा की कसम खुदा ही जाने,

सब लौट दिया खुदा पर 

फिर उजुर समजा जिंदगी का

जब मैं रूठ गया खुद के जिंदगी से,

सब रोये कुछ पल के लिए।


बस अब स्वर्ग से ही मिलना है

एक आशा पर।


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