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Ajay Singla

Classics

4  

Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -९० ;ऋषभजी का अपने पुत्रों को उपदेश देना

श्रीमद्भागवत -९० ;ऋषभजी का अपने पुत्रों को उपदेश देना

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ऋषभ जी ने कहा पुत्रों से

नही है मनुष्य इस मर्त्यलोक में

कष्ट देने वाले ये दुखमय

विषयभोग प्राप्त करने के लिए!


दिव्य तप इसे करना चाहिए

अन्त:कर्ण शुद्ध हो जिससे

अनंत ब्रह्मपद की प्राप्ति

अन्त में होती है इसी से!


महापुरुषों की सेवा जो है

द्वार यही एक भक्ति का

स्त्रीसंग, कामियों का संग तो

द्वार बताया गया नर्क का!


जो समानचित, परमशांत है

 क्रोधहीन, सबका हितचिंतक हो

वही महापुरुष कहलाते

मुझको परमार्थ मानते हैं जो!


केवल शरीर निर्वाह के लिए

प्रवृत हों लौकिक कार्यों में

गृहस्थ कार्य करते हुए भी

मन उनका मुझमें लगा रहे!


आत्मतत्व की इस जीव को

जिज्ञासा नही होती है जब तक

अज्ञानवश देहादि के द्वारा

उसका स्वरुप छिपा रहता तब तक!


लौकिक,वैदिक कर्मों में फंसा रहे

वासनाएं बनी रहती हैं

और इन्ही कर्मों से ही

देह बंधन की प्राप्ति होती है!


जब तक किउस मनुष्य की

मुझ वासुदेव में प्रीती न हो

तब तक इस देह बंधन से

कभी भी न छूट पाए वो!


स्त्री और पुरुष दोनों का

जो परस्पर दाम्पत्यभाव है

इसी को पंडितजन ह्रदय की

दूसरी स्थूल ग्रंथि कहते हैं!


देहाभिमानी रूप एक एक ग्रंथि तो

अलग अलग पहले से उनमें

इसी के कारण मोह लगा रहे

घर, खेत, धन, पुत्रादि में!


कर्मवासनाओं में पड़ी हुई

यह दृढहृदय ग्रंथि है जो

थोड़ी ढीली हो जाती, जीव तब

दाम्पत्य भाव से निवृत हो वो!


संसार के अहंकार को त्यागकर

सब प्रकार के बंधनों से मुक्त हो

चित को श्री हरि में लगाकर

परमपद प्राप्त करता वो!


मनुष्य को ये चाहिए कि वो

अविद्या से प्राप्त हुई जो

हृदतग्रंथि रूप बंधन को

शास्त्रोत्र रीती से काटे वो!


जिसे इच्छा हो मेरे लोक की

राजा हो तो अपनी पजा को

गुरु शिष्यों को, पिता पुत्र को

सावधानी से दे, इस शिक्षा को!


अज्ञान के कारण यदि वे सब 

उस शिक्षा अनुसार न चलकर 

कर्म को ही पुरुषार्थ मानें 

तो समझाए उन्हें, क्रोध न करकर!


जो अपने प्रिय सम्बन्धिओं को 

भक्ति का ये न उपदेश दे 

मृत्यु की फँसी से नहीं छुड़ाता 

वह गुरु, गुरु नहीं है!


स्वजन वो स्वजन नहीं है 

पिता वो पिता नहीं है 

इष्टदेव वो इष्टदेव न 

माता माता , पति पति नहीं है!


पुत्र तुम सब मेरे हो 

मेरे ह्रदय से उत्पन्न हुए हो 

अब तुम सब अपने बड़े भाई 

भरत जी की ही सेवा करो!


उसकी सेवा ही मेरी सेवा 

यही तुम्हारा प्रजापालन है 

सभा में ब्राह्मणों से कहा उन्होंने 

न कोई प्राणी तुम्हारे समान है!


हे ब्राह्मणो, तुम मुझसे भी श्रेष्ठ 

लोग जो अन्नादि आहुति डालते 

श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों के मुख में 

ग्रहण करता मैं उसे प्रसन्नता से!


सम्पूर्ण चराचर भूतों को 

शरीर समझकर उन्हें मेरा ही 

यही सच में मेरी पूजा है 

शुद्ध बुद्धि से सेवा करो उनकी!


शुकदेव जी कहें, हे राजन 

ऋषभदेव के पुत्र सुशिक्षित थे 

पर उनको इस प्रकार उपदेश दिया 

प्रजा को शिक्षा देने के लिए!


ऋषभ जी के सौ पुत्रों में 

भरत जी, सबसे बड़े थे 

भगवद्भक्तों के परायण 

भगवान के वो परम भक्त थे!


पृथ्वी का पालन करने को 

बैठाया राजगद्दी पर उनको 

मुनियों को धर्मों की शिक्षा देने 

स्वयं चल दिए, बिलकुल विरक्त हो!


वस्त्रों को भी त्याग दिया उन्होंने 

सर्वथा दिगंबर हो गए 

अग्निओं को अपने में लीन कर 

सन्यासी हो बाहर निकल गए!


सर्वथा वो मौन हो गए 

अवधूत बनकर वो विचरने लगे 

पहाड़ों में कभी, कभी आश्रमों में 

मूर्ख लोग थें तिरस्कार करें!


किन्तु इन सब बातों पर वो 

जरा भी ध्यान न देते 

उनकी समता तनिक भी न थी 

इस क्षणभंगुर मिथ्या शरीर से!


ऋषभदेव देव ने जब देखा जनता 

विघ्न करे योगसाधना में 

लेटे लेटे खाने पीने लगे 

अजानवृति धारण की उन्होंने!


लेटे लेटे मल मूत्र त्यागें 

स्वीकार किया पशु वृतिओं को 

उनके समान चलते, खड़े खड़े 

खाते, मल - मूत्र त्याग करते वो!


इस तरह उन्होंने कई तरह की 

योगचर्याओं का आचरण किया 

सदा आनंद का अनुभव करते 

सेवा करने आयीं कई सिद्धिआं!


आकाशगमन, अंतर्ध्यान 

दुसरे पुरुष में प्रवेश करने कीं 

दुसरे की बातें सुनने कीं 

और दूर से दृश्य देखने कीं!


ये सिद्धिआं अपने आप ही 

उनकी सेवा में आ गयीं 

परन्तु आदर न किया उनका 

कोई सिद्धि भी ग्रहण नहीं की!


 



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