श्रीमद्भागवत -३२७: मार्कण्डेय जी का माया दर्शन
श्रीमद्भागवत -३२७: मार्कण्डेय जी का माया दर्शन


श्रीमद्भागवत -३२७: मार्कण्डेय जी का माया दर्शन
मार्कण्डेय जी की ऐसी स्तुति से
नारायण ने कहा, प्रसन्न हो
चित्त की एकाग्रता और संयम से तुम मेरी
अनन्य शक्ति से सिद्ध हो गये हो ।
तुम्हारे आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत की निष्ठा
देखकर हम तुमपर प्रसन्न हुए
कल्याण हो तुम्हारा, माँग लो
अभीष्ट वर अपना तुम मुझसे ।
मार्कण्डेय मुनि कहें, देव
इतना ही वर बस पर्याप्त हमारे लिए
कि कृपा करके दर्शन कराया
अपने मनोहर स्वरूप का आपने ।
फिर भी आज्ञा अनुसार आपकी
वार माँगता हूँ मैं आपसे
देखना चाहता आप की वो माया
लोकपाल भी मोहित हों जिससे ।
भेद विभेद देखने लगते हैं
अद्वितीय ब्रह्म में अनेक प्रकार के
सूत जी कहें, शौनक जी
जब ऐसा कहा मार्कण्डेय मुनि ने ।
नर नारायण ने मुस्कुरा कर कहा
“ ऐसा ही होगा “ तुम चाहो तो
इसके बाद अपने आश्रम
बद्रीवन को चले गये वो ।
मार्कण्डेय मुनि अपने आश्रम पर
इस बात का चिंतन करते रहते
कि भगवान ने जो कहा है
उस माया के दर्शन कब होंगे मुझे ।
अग्नि, सूर्य, चंद्रमा, जल, पृथ्वी
वायु, आकाश एवं अंतकरण में
सर्वत्र भगवान का ही दर्शन करते
मानसिक वस्तुओं से पूजन करते वे ।
शौनक जी, एक दिन की बात है
तट पर पुष्पभद्रा नदी के
मार्कण्डेय भगवान हरि की
तपस्या में तन्मय हो रहे ।
उसी समय एकाएक ही
बड़े ज़ोर की आँधी चलने लगी
विकराल बादल आकाश में छा गये
साथ में बिजली चमक रही ।
मोटी मोटी धारायें जल की
पृथ्वी पर गिरने लगी थीं
ऐसा दिखाई पड़ा मुनि को
जैसे समुंदर निगल रहा पृथ्वी ।
बड़ी बड़ी लहरें उठ रहीं जहां तहाँ
बाहर भीतर जल ही जल था
ऐसा लग रहा जल समाधि में
पृथ्वी, स्वर्ग डूबा जा रहा ।
बिजली और आँधी से ऐसी
सम्पूर्ण जगत संतप्त हो रहा
सारी पृथ्वी डूब गई है
मार्कण्डेय मुनि ने जब ये देखा ।
कि उद्भिज्ज, स्वेदज, अण्डज़ और जरायुज़
प्राणी ये चारों प्रकार के
अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं
बड़े उदास हो गये तब वे ।
थोड़ा सा भयभीत भी हुए
देखें कि पृथ्वी, अंतरिक्ष, दिशाएँ
स्वर्ग, ज्योतिरमंडल के साथ
तीनों लोक जल में डूब गये ।
वहाँ उस समय एकमात्र
मार्कण्डेय मुनि ही बच रहे थे
पागल और अंधे के समान वे
प्राण बचाने की चेष्टा कर रहे ।
भूख, प्यास से व्याकुल हो रहे वे
मगर, मच्छ टूट पड़ते उनपर
हवा के झोंके और लहरों के थपेड़े
ये सब उन्हें कर रहे घायल ।
भटकते भटकते ऐसे वे
अपार अज्ञानअंधकार में पड़ गये
पृथ्वी आकाश का भी ज्ञान ना रहा उन्हें
थक कर बेहोश हो गये वे ।
कभी किसी संकट में पड़ते और
किसी जन्तु का शिकार बन जाते
शोकाग्रस्त हो जाते कभी
मोहग्रस्त वो कभी हो जाते ।
कभी दुख ही दुख होता उन्हें
तनिक सुख भी मिल जाता कभी
भयभीत होते, कभी मर जाते
रोग सताने लगते उन्हें कभी ।
विष्णु भगवान की माया के चक्र से
मार्कण्डेय मुनि मोहित हो रहे
इस प्रलयकाल में भटकते हुए
उन्हें करोड़ों वर्ष बीत गये ।
इसी प्रकार भटकते भटकते एक बार
उन्होंने पृथ्वी के टीले पर
बरगद का छोटा सा पेड़ देखा एक
लाल फल, हरे पत्ते उसपर ।
पेड़ के ईशानकोण पर
एक डाल थी और उसपर
एक पत्ते का दोना बन गया
सुंदर शिशु एक लेट रहा उसपर ।
उज्ज्वल छाया छिटक रही थी
शरीर से उस नन्हे शिशु के
अंधकार दूर हो रहा था
आस पास का उस छटा से ।
सांवला सा था शिशु वो
मरकतमणि के समान दिखे
मुखमण्डल पर अपार सौंदर्य और
मुस्कान, चितवन हृदय को पकड़ ले ।
नन्हे नन्हे हाथों में बड़ी ही
सुंदर सुंदर उँगलियाँ उसके
करकमलों से एक पाँव पकड़कर
चूस रहा डालकर मुँह में ।
ऐसा दृश्य देख मार्कण्डेय मुनि
अत्यंत ही विस्मित हो गए
सारी थकावट जाती रही उनकी
बस शिशु को देखने भर से ।
हृदयकमल और नेत्रकमल
खिल गये आनंद से उनके
शरीर सारा पुलकित हो गया
शंकाएँ आ रहीं उनके मन में ।
सोचें यह शिशु कौन है
और जब वे इस शिशु से
ये बात पूछने के लिए
उसके पास पहुँचने वाले थे ।
कि उस शिशु ने श्वास के साथ में
इस प्रकार अंदर घुस गये वे
जैसे एक छोटा सा मच्छर
पेट में चला जाए किसी के ।
उस शिशु के पेट में जाकर
उन्होंने वो सब सृष्टि देखी
जैसी प्रलय के पहले से
उन्होंने देख रखी थी ।
आश्चर्यचकित हुए थे दृश्य देखकर
आकाश, , अंतरिक्ष उदर में शिशु के
ज्योतिर्मण्डल, समुंदर , दिशायें, देवता
नदियाँ, नगर और काल भी देखे ।
हिमालय पर्वत, पुष्पभद्रा नदी वहाँ
उनका अपना आश्रम और ऋषियों को
मार्कण्डेय ऋषि ने उस
प्रलय में देखा उन सबको ।
ऐसा देखते देखते ही वे
श्वास से ही बाहर आ गये शिशु के
प्रलयक़ालीन समुंदर में गिर पड़े
और फिर देखा उन्होंने ।
कि समुंदर के बीच में
विद्यमान बरगद का पेड़ वही
उसके पत्ते के एक दोने में
सोया हुआ है शिशु वही ।
मंद मंद मुस्कान अधरों पर
प्रेमपूर्ण चितवन से अपनी
मार्कण्डे मुनि की और देख रहा है
और मार्कण्डेय मुनि भी ।
इन्द्रयातीत भगवान को जो
शिशु के रूप में लीला कर रहे
हृदय में विराजमान हो चुके पहले से
आलिंगन करने के लिए आगे बढ़े ।
अभी मार्कण्डेय मुनि उसके
पास पहुँच भी ना पाए थे
कि वो अंतर्धान हो गये
और तब उनके साथ में ।
बरगद का पेड़, प्रलयक़ालीन दृश्य
सभी अंतर्धान हो गये
और मुनि ने देखा कि वो
पहले समान आश्रम में बैठे हुए ।