श्रीमद्भागवत-२४४;उद्धव तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत
श्रीमद्भागवत-२४४;उद्धव तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
गोपियों ने देखा जब उद्धव जी को
आकृति, वेष भूषा श्री कृष्ण से मिलती
शरीर पर पीताम्बर पहने वो।
मुखारविंद अत्यंत प्रफुल्लित उनका
गोपियों ने आपस में कहा ये
‘ यह पुरुष देखने में सुंदर
किसका दूत आया कहाँ से ‘।
कृष्ण समान वेश भूषा देखकर
अत्यंत उत्सुक हो गयीं वे
घेर कर खड़ी हो गयीं
उद्धव जी को चारों और से।
जब उन्हें मालूम हुआ कि
कृष्ण का संदेश लाए ये
मधुर वाणी से उद्धव जी का
सत्कार किया, उनसे कहें वे।
‘ उद्धव जी, हम जानती हैं कि
पार्षद आप हैं यदुनाथ के
उन्ही का संदेश लाए हैं
उनके माता पिता के लिए।
आपके स्वामी ने भेजा आपको
सुख देने के लिए ही उनको
नंदगाँव में उनके स्मरण योग्य कुछ
दिखाई ना पड़े अन्यथा हमें तो।
स्नेह बंधन होता है बस
माता पिता, सगे सम्बन्धियों का
दूसरों के साथ जो प्रेम सम्बंध हो
उसका तो स्वाँग किया जाता।
किसी ना किसी स्वार्थ के लिए
ही होता है वह तो
भोरों का पुष्पों से और पुरुषों का
स्त्रियों से स्वार्थ का सम्बंध हो।
जब प्रजा देखती कि राजा
रक्षा नहीं कर सकता उनकी
तब वह प्रजा उस राजा का
साथ छोड़ देती तुरंत ही।
अध्ययन समाप्त हो जाने पर
आचार्य सेवा करते शिष्य कितने ?
यज्ञ की दीक्षा मिली नहीं कि
सभी ऋत्विज चलते बनते ।
जब वृक्ष पर फल न रहें
उड़ जाते पक्षी वहाँ से
स्त्री के हृदय में कितना भी प्रेम हो
जार पुरुष उलटकर भी ना देखें।
परीक्षित,, मन और शरीर गोपियों के
तल्लीन थे श्री कृष्ण में ही
कृष्ण के दूत बनकर
व्रज में आए थे उद्धव जी।
उद्धव जी से बातें करते हुए
भूल गयीं थी गोपियाँ ये कि
कौन सी बात और किस तरह
किसके सामने कहनी चाहिए थी।
कृष्ण लीलाओं का गान करें वो
स्त्री सुलभ लज्जा को भूल गयीं
उद्धव जी के सामने ही
फूट फूट कर वे रोने लगीं।
एक गोपी को श्री कृष्ण के
मिलन का स्मरण हो आया
उसी समय उसने देखा कि
एक भोंरा वहाँ गुनगुना रहा।
उसने समझा मानो कृष्ण ने
समझकर मुझको रूठी हुई
भोरें के रूप में दूत है भेजा
मुझे मनाने के लिए ही।
भोरें से वो इस प्रकार कहने लगी
‘ हे मधुप ! कपटी का सखा तू
इसलिए तू भी कपटी है
छू मत हमारे पैरों को तू।
झूठा प्रणाम करके विनय मत कर
हम देख रहीं हैं ये कि
श्री कृष्ण की जो वनमला
हमारी सोतों के स्पर्श से मसली हुई।
उसका पीला पीला कुंकुम जो
लगा हुआ मूछों पर तेरी
किसी पुष्प को प्रेम नहीं करता
इधर उधर उड़ता रहे तु भी।
जैसा तेरा स्वामी वैसा तू
मधुपति श्री कृष्ण मथुरा की
नायिकाओं को मनाया करें
क्या आवश्यकता पड़ी
तुम्हें यहाँ भेजने की।
जैसा तू काला है वैसे ही
वो भी काले हैं और उन्होंने
एक बार अधर रस पिलाया और
हम गोपियों को छोड़कर चले गए।
पता नहीं सुकुमारी लक्ष्मी
करती रहतीं कैसे सेवा उनकी
अवश्य ही वे कृष्ण की चिकनी
चुपड़ी बातों में आ गयी होंगी।
अरे भ्रमर, हम व्रजवासिनी हैं
घर द्वार भी नहीं हैं हमारे तो
श्री कृष्ण का गुणगान कर रहे
तुम हमारे सामने ये जो।
यह गान भला हम लोगों को
मनाने के लिए ही तो है
परन्तु नहीं सखी, ये सब तो
हमारे लिए कोई नया नहीं है।
चापलूसी ये तुम्हारी
हमारे सामने नहीं चलेगी
तू जा यहाँ से चला जा
पास चला जा तू उनके ही।
उनके साथ जो विचरा करती हैं
उन मथुरा की स्त्रियों के सामने
जाकर उनका गुणगान कर तू
क्योंकि अभी नयी हैं वे।
उनकी लीलाएँ कम हैं जानती
और इस समय उनकी प्यारी वे
और मिटा दी है कृष्ण ने
पीड़ा भी हृदय से उनके।
तेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगी वे
चापलूसी से प्रसन्न हो तेरी
और जो भी तू माँगेगा
वो वस्तु वो तुमको देंगी।
वे हमारे लिए छटपटा रहे
ऐसा क्यों कहता है तू
कपट भरी मुस्कान उनकी और
भोहों के इशारे को नहीं जानता तू।
इससे वे वश में कर लेते
स्त्रियों को, और वे सभी
उनके पास दौड़ी आती हैं
घर बार छोड़ कर तभी।
हमारी तो बात ही क्या है
पृथ्वी पर ऐसी कोई भी स्त्री नहीं
उनके लिए जो ये सब ना कर सके
सेवा करें उनकी लक्ष्मी जी भी।
फिर हम किस गिनती में उनके लिए
उनके पास कहना तू जाकर
तुम्हारा नाम तो ‘ उत्तम शलोक’ है
कीर्ति का गान करें नारी नर।
परंतु इसकी सार्थकता इसी में
कि तुम दीनों पर दया करो
उत्तमशलोक नाम ये तुम्हारा
झूठा पड़ जाए नहीं तो।
अरे मधुकर ! देख तू मेरे
पैर पर सिर टेक ना ऐसे
मैं जानती हूँ तू निपुण है
ऐसे क्षमा याचना करने में।
मालूम होता है कृष्ण से ही
सीख कर आए हो तुम कि
रूठे हुए को मनाने में
चाटुकारिता कितनी करनी चाहिए।
परंतु तू समझ ले कि यहाँ
तेरी दाल नहीं गलने की
पति पुत्र को छोड़ के आयीं
हम तो कृष्ण के लिए ही।
परंतु कृतज्ञता नहींं तनिक भी उनमें
ऐसे निर्मोही निकले वे
इतना सब कुछ करने पर भी
हमें छोड़कर वो चले गए।
ऐसे अकृतज्ञ के साथ हम
तू ही बता , क्या संधि करें
क्या तू अब भी कहता है कि
उनपर विश्वास हमें करना चाहिए।
मधुप !जब वे राम बने थे
कपिराज बलि को उन्होंने
व्याघ के समान धोखे से
मार डाला बड़ी निर्दयता से।
कामवश पास आयी थी
बेचारी शूर्पणखा जो उनके
परंतु अपनी स्त्री के वश होकर
नाक कान काट लिए उसके।
ब्राह्मण के घर वामन के रूप में
जन्म लेकर उन्होंने क्या किया
बलि ने तो उनकी पूजा की
वरुणपाश में उसे बांध लिया।
अच्छा इन सब को जाने दो
हमें कृष्ण से कुछ लेना देना नहींं
उनसे से क्या किसी भी काली
वस्तु से हमें प्रयोजन ना कोई।
परंतु यदि तुम यह कहो कि
ऐसी बात है तो तुम सभी
उनकी चर्चा क्यों करती हो
तो तुम सुन लो हमारी भी।
हे भ्रमर ! हम सच कहती हैं
हमारी तो दशा है ऐसी
कि हम अगर चाहें भी तो
उनकी चर्चा छोड़ नहीं सकतीं।
कृष्ण की लीलरूप कर्णामृत के
एक क्षण का भी जो रसास्वादन कर लेता
सारे द्वन्द छूट जाते हैं
छूटे राग, द्वेष, सुख दुःख उनका।
वास्तव में बस ऐसा ही है
चस्का जो है उनके रस का
कि कपटभरी मीठी बातों में
आ गयीं उनके हम गोपियाँ।
हम भोली भालीं हैं और
सत्य समान मान बैठीं उन्हें
इसलिए कृष्ण के दूत भोरें तू
कुछ और मत कह इस विषय में।
तूने कहना ही है तो तू
कोई दूसरी बात कह दे
हमारे प्रियतम ने ही है भेजा
तुमको हमें मनाने के लिए।
प्रिय भ्रमर, हमारे लिए तू
सब प्रकार से माननीय हो
कहो तुम्हारी क्या इच्छा है
हमसे जो चाहो वो माँग लो।
अच्छा तो बताओ क्या हमें
वहाँ ले जाना चाहते हो
पर वापिस लौटना कठिन है
अरे, उनके पास जाकर तो।
हम तो उनके पास जा चुकी हैं
करोगे क्या वहाँ ले जाकर हमें
हे भ्रमर ! उनके वक्षसथल पर
लक्ष्मी जी तो सदा ही रहें।
तब हमारा निर्वाह कैसे हो
हे प्रियतम के प्यारे मधुकर
बतलाओ कृष्ण सुख से तो हैं ना
गुरुकुल से लौट मधुपुरी में आकर।
नन्दबाबा, यशोदा रानी
सगे सम्बन्धी, गवालबालों को
क्या वे कभी याद करते हैं
या बात करें हमारी भी कभी।
प्यारे भ्रमर ! हमें यह बतलाओ
कि क्या वो अपनी भुजा को
दिव्य सुगंध से युक्त रहती जो
कभी हमारे सिरों पर रखेंगे वो।
हमारे जीवन में कभी ऐसा
क्या आएगा शुभ अवसर भी
परीक्षित, गोपियाँ कृष्ण दर्शन को
अत्यंत उन्मुक्त हो रहीं थीं।
उनके लिए थीं तड़प रहीं वो
उनकी बातें सुन उद्धव जी ने
उनके प्रियतम का संदेश सुनाकर
सांत्वना देते हुए कहा उनसे।
उद्धव जी ने कहा, अहो गोपियों
कृतकृत्य तुम, जन्म सफल तुम्हारा
सारे संसार के लिए पूजनीय तुम
तुमने कृष्ण को सर्वस्व समर्पित किया।
भगवान कृष्ण के प्रति सर्वोत्तम
प्रेमभक्ति तुमने प्राप्त की
आदर्श स्थापित किया है ऐसा
दुर्लभ जो ऋषियों मुनियों के लिए भी।
तुमने अपना सब कुछ छोड़कर
कृष्ण को वरण किया पति रूप में
हे भाग्यवती गोपियो
कृष्ण तो परम पति हैं सबके।
भगवान कृष्ण के वियोग में तुमने
प्रभु के प्रति प्राप्त कर लिया
वह भाव जो सभी वस्तुओं के रूप में
उनका ही है दर्शन करता।
वह भाव तुम लोगों का
मेरे सामने भी प्रकट हुआ
तुम देवियों की मेरे ऊपर
यह तो है बड़ी ही कृपा।
अपने स्वामी का दूत हूँ मैं तो
उनका कार्य मैं करने आया
तुम्हारे प्रियतम श्री कृष्ण ने
एक संदेशा है भिजवाया।
कल्यानियो , वही लेकर आया मैं
भगवान श्री कृष्ण ने कहा ये
सबकी आत्मा मैं हूँ इसलिए
तुम्हारा वियोग नहीं हो सकता मुझसे।
आकाश , वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी ये
सभी में व्याप्त हैं जैसे
मन, प्राण, इंद्रियाँ और उनके विषयों का
आश्रय हूँ मैं भी वैसे।
वे मुझमें हैं, मैं उनमें हूँ
और सच पूछो तो मैं ही
उनके रूप में प्रकट हो रहा
मेरे सिवा यहाँ और कोई नहीं।
माया और माया के गुणों से
पृथक आत्मा है, सर्वथा शुद्ध ये
माया की तीन वृत्तियाँ हैं
कोई भी गुण इसे स्पर्श ना कर सके।
सुषुप्ति स्वपन और जागृत ये वृत्तियाँ
अखंड आत्मा इनके द्वारा ही
कभी प्राज्ञ कभी तैजस और
विश्वरूप में प्रतीत हो कभी।
मनुष्यों को चाहिए कि वो
स्वाभाविक विषयों को जगत के
त्यागकर मेरा ध्यान करे
साक्षात्कार मेरा करें वे।
घूम फिर समुंदर में पड़तीं
जिस प्रकार नदियाँ ये सारी
पुरुषों के समस्त धर्म इसी तरह
समाप्त हों मेरी प्राप्ति में ही।
मेरा साक्षात्कार ही जो है
इन सबका फल है क्योंकि
मन को सब निरुद्ध करके
मेरे पास पहुँचाते हैं वे।
गोपियो इसमें संदेह नहीं कि मैं
ध्रुव तारा तुम्हारे नयनों का
तुम्हारा जीवन सर्वस्व हूँ किंतु
कारण है तुमसे दूर रहने का।
वह यही कि तुम निरंतर
मेरा ध्यान सदा रहो करती
मन से मेरी सन्निधि का अनुभव करो
शरीर से दूर रहने पर भी।
अशेष वृत्तियों से रहित सम्पूर्ण मन
मुझमें लगाकर जब तुम सभी
अनुसरण करोगी मेरा तो सदा के लिए
मुझे प्राप्त करोगी शीघ्र ही।
कल्यानियो, जिस समय वृन्दावन में
शरदीय पूर्णिमा की रात्रि में
रास क्रीड़ा की थी मैंने
और कुछ गोपियाँ उस समय।
स्वजनों के रोक देने से
रह गयीं थी व्रज में ही
रास विहार में मेरे साथ वो
सम्मिलित ना हो सकीं थीं।
मुझे प्राप्त हो गयीं वो
स्मरण कर मेरी लीलाओं का
निराश होने की कोई बात नहीं
मैं तुम्हें अवश्य मिलूँगा।
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
अपने प्रियतम श्री कृष्ण का
संदेश सुनकर आनंदित हो गयीं
व्रज की वो सारी गोपियाँ l
उनके संदेश से उन्हें कृष्ण के
स्वरूप की याद आने लगी
प्रेम से भरकर वो गोपियाँ
उद्धव जी से ये कहने लगीं।
गोपियों ने कहा उद्धव जी
कंस मरा, सौभाग्य की बात ये
कृष्ण के बन्धु बांधवों के
सब मनोरथ पूरे हो गए।
अब हमारे प्यारे श्री कृष्ण
सकुशल निवास करें साथ में उनके
परंतु उद्धव जी एक बात ये
आप हमें अवश्य बतलाइए।
प्रेम भरी मुस्कान और चितवन से
जिस प्रकार हम देखती थी उन्हें
और श्यामसुंदर हमारे
प्यार करते थे वो भी हमें।
मथुरा की स्त्रियाँ भी क्या वैसे
प्यार करतीं हमारे कृष्ण से
तब एक दूसरी गोपी बोली
हे सखी, श्यामसुंदर हमारे।
प्रेम कला के विशेषज्ञ वे तो
श्रेष्ठ स्त्रियाँ प्यार करें उनको
रीझेंगे वो भी उन स्त्रियों पर
मीठी मीठी बातें करेंगी जब वो।
दूसरी गोपियाँ बोलीं, उद्धव जी
यह तो बतलाइए आप हमें
कि हमारे श्यामसुंदर जी
जब उन स्त्रियों से बातें करें।
क्या कभी हम ग्वालिनों को
प्रसंगवश याद करते हैं
कुछ गोपियाँ पूछें, उद्धव जी
क्या वो हमें स्मरण करते हैं।
कुछ गोपियों ने कहा उद्धव जी
क्या उन रात्रियों को कृष्ण कभी
याद करते हैं जिसमें उन्होंने
नृत्य किया और रासलीला की।
उस समय हम उनकी लीलाओं का
गान कर रहीं थीं और वे
विहार कर रहे वहाँ पर
हमारे साथ नाना प्रकार के।
कुछ दूसरी गोपियाँ बोल उठीं
उद्धव जी, जल रहीं हैं हम तो
उनके विरह की आग में ही
जीवन दान क्या वे देंगें हमको।
एक सखी ने तब बोला ये
शत्रुओं को मारकर अब तो उन्होंने
राज्य भी प्राप्त कर लिया
पास क्यों आएँगे अब हम ग्वालिनों के।
अब तो बड़े बड़े नरपतियों की
कुमारियों से विवाह करेंगे वो
दूसरी ने कहा, नहीं सखी
स्वयं लक्ष्मी पति हैं वो तो।
कामनाएँ पूर्ण ही हैं उनकी
सदा कृत कृत्य हैं वे तो
कोई प्रयोजन नहीं उनका हमसे
अथवा दूसरी राजकुमारियों से।
कोई काम नहीं अटक रहा
उनका हम लोगों के बिना
देखो वैश्या होने पर भी
पिंगला ने था ठीक ही कहा।
संसार में किसी से आशा ना रखना
सुख है ये तो सबसे बड़ा
यह बात हम जानतीं फिर भी
छोड़ें ना कृष्ण के लौटने की आशा।
उनके शुभागमन की राह देखतीं
हमारा जीवन है यही तो
हम तो सोच भी ना सकें
उनको छोड़ने अथवा भुलाने को।
उद्धव जी, यह वही नदी है
क्रीड़ा करते थे जिसमें वे
यही वो पर्वत जिसके शिखर पर
चढ़कर बांसुरी थे बजाते।
ये वो ही वन हैं जिसमें
रासलीला करते रात्रि में
और ये वही गोएँ हैं
जिनको वो चराया करते थे।
और यह ठीक वैसी ही
बांसुरी तान गूंज रही कानों में
जैसे वे छेड़ा करते थे
अपने अधरों के संयोग से।
एक एक प्रदेश यहाँ का
एक एक धूलि कण, उनके
चरणकमलों से चिन्हित है
कृष्ण दिखते जब हम देखें इन्हें।
उद्धव जी किसी भी प्रकार ना
हम उनको भूल पाएँगी
जीते जी तो सम्भव ना ये
और मरकर भी ये सम्भव नहीं।
उनकी सुंदर चाल हंस सी
उन्मुक्त हास्य बिलासपूर्ण चितवन
और उनकी मधुमय वाणी ने
चुरा लिया है हम सबका मन।
अब हमारे वश में नहीं मन ये
भूलें तो कैसे भूलें उन्हें
श्यामसुंदर तुम तो सर्वस्व
स्वामी हो हमारे जीवन के।
तुम लक्ष्मीनाथ हो तो क्या हुआ
व्रजनाभ ही हो हमारे लिए तो
बार बार संकट काटे तुमने
मिटाया है हमारी व्यथा को।
गोविंद तुम ग़ोओं से प्रेम करो
हम भी तो गाय की तरह हैं।
तुम्हारा सारा गोकुल दुःख से
अपार सागर में डूब रहा है।
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
संदेश को सुनकर कृष्ण के
गोपियों की विरह व्यथा जो थी
शान्त हो गयी और वे।
अपनी आत्मा के रूप में
सर्वत्र स्थित समझ चुकीं कृष्ण को
बड़े प्रेम और आदर से तब
सत्कार कर रहीं उद्धव जी का वो।
उद्धव जी कई महीनों तक
वहीं रहे व्यथा मिटाने को उनकी
ब्रजवासियों का मन आनंदित करते
सुनाकर बातें श्री कृष्ण की।
जब तक उद्धव जी व्रज में रहे
ब्रजवासियों को ऐसा जान पड़ा
मानो एक ही क्षण हुआ है
सुनते रहते वे कृष्ण की लीला।
उद्धव जी कभी नदी तट पर जाते
कभी विचरते वो वनों में
गिरिराज की घाटियों में कभी
कभी झाड़ियों और पेड़ों में।
और वहाँ भगवान कृष्ण ने
कौन सी लीला की है पूछते
व्रजवसियों को भगवान कृष्ण के
स्मरण में तन्मय कर देते।
गोपियों को श्री कृष्ण में
तन्मय देखकर उद्धव जी भी
प्रेम और आनन्द से भर गए
उन्होंने बहुत प्रशंसा की उनकी।
गोपियों को नमस्कार करते हुए
गान करें कृष्ण सखा उद्धव जी
‘शरीर धारण श्रेष्ठ और सफल है
इस पृथ्वी पर बस गोपियों का ही।
क्योंकि वे दिव्य महाभाव में
स्थित हैं भगवान श्री कृष्ण में
प्रेम की यह ऊँची से ऊँची स्थिति
और किसी के लिए नहीं ये।
भय से भीत मुमुक्षजनों लिए नहीं
मुनियों, मुक्तपुरुषों में भी नहीं
और वांछनीय ही है ये
हम भक्तजनों के लिए भी।
चस्का लग जाता है जिन्हें
श्री कृष्ण की लीलाओं का
उन्हें कुलीनता, संस्कारों और यज्ञ याज्ञो में
दीक्षित होने की क्या आवश्यकता।
अथवा यदि भगवान की कथा का
रस न पिया या रुचि ना हुई तो
कल्पों तक ब्राह्मण होने पर भी
लाभ नहीं है कोई उसको ।
कहाँ वनचरी आचार वाली और
ज्ञान, जाती से हीन गोपियाँ ये
और कहाँ ये अनन्य प्रेम उनका
सचिदानंदघन भगवान कृष्ण से।
धन्य है, इससे सिद्ध होता कि
यदि स्वरूप और रहस्य को भगवान के
ना जानकर भी उन्हें प्रेम करें
तो भी कृष्ण कल्याण कर देते।
ये वैसे ही है कि जैसे
अनजाने में अमृत पी ले कोई
पीने वाले को अमर बना दे
ये अमृत अपनी शक्ति से ही।
जिस कृपाप्रसाद का वितरण किया
रासोत्सव में भगवान ने इन्हें
लक्ष्मी जी को भी नहीं मिला वैसा
प्रेमदान जो मिला इन्हें उनसे।
फिर दूसरी स्त्रियों की तो बात ही क्या है
अच्छी बात यही होगी मेरे लिए
कि कोई झाड़ी, लता बन जाऊँ
मैं इस वृंदावन धाम में।
यदि मैं ऐसा बन जाऊँगा
व्रजांगनाओं की तब मुझे
चरणधूलि मिलती रहेगी
नित्य निरन्तर सेवन के लिए।
स्नान करके उस चरणरज में
मैं भी धन्य हो जाऊँगा
भगवान के लिए सब कुछ छोड़ दिया
धन्य धन्य हैं ये गोपियाँ।
स्वजन सम्बन्धी लोक मर्यादा
अत्यंत कठिन है जिसको छोड़ना
त्यागकर इनको भगवान का इन्होंने
परम प्रेम प्राप्त कर लिया।
औरों की तो बात ही क्या है
भगवतवाणी, उनकी श्रुतियाँ
इस प्रेममय स्वरूप को प्राप्त ना कर सकीं
ढूँढती ही रहती वो यहाँ वहाँ।
रहनेवाली व्रज में जो गोपियाँ
चरणधूलि को मैं उनके
बारम्बार प्रणाम करता हूँ
सिर पर चढ़ाता हूँ मैं उसे।
इन गोपियों ने ही श्री कृष्ण की
लीला का गान किया जो उससे
तीनों लोक पवित्र हो रहे
सदा सर्वदा होते रहेंगे।
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
कई महीने रहकर व्रज में
उद्धव ने गोपियों और नन्दबाबा से
आज्ञा ली मथुरा जाने के लिए।
जब रथ व्रज से बाहर निकला तब
गोपगनों की आँखों में आंसू थे
उन्होंने बड़े प्रेम से कहा
उद्धव जी, हम बस यही हैं चाहते।
कि हमारे मन की एक एक वृत्ति
और सभी संकल्प उनके
आश्रित रहें श्री कृष्ण के
उन पूज्य चरणकमलों के।
वाणी नामों का उच्चारण करे
शरीर उनकी सेवा में लगा रहे
हमें मोक्ष की इच्छा नहीं है
बस उनकी भक्ति हमें मिले।
भगवान की इच्छा से और अपने कर्मों से
चाहे जिस योनि में जन्म हो
वहाँ शुभ आचरण करें , दान करें और
श्री कृष्ण की प्रीति मिले फल में।
लौट आए उद्धव जी मथुरा में
प्रणाम किया आकर श्री कृष्ण को
भक्ति और प्रेम ब्रजवासियों का
वहाँ देखा जो सुनाया उनको।