श्रीमद्भागवत - १७८; इक्ष्वाकु के वंश का वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषि की कथा
श्रीमद्भागवत - १७८; इक्ष्वाकु के वंश का वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषि की कथा
श्रीमद्भागवत - १७८; इक्ष्वाकु के वंश का वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषि की कथा
श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
तीन पुत्र थे अम्बरीष के
विरुप, केतुमान और शंभू
ये तीनों नाम थे उनके।
विरुप का पृषदशव पुत्र हुआ
उसका पुत्र रथीतर हुआ
रथीतर संतानहीन था
वो अंगिरा ऋषि के पास गया।
वंश परम्परा की रक्षा के लिए
अंगिरा ऋषि से प्रार्थना की उसने
ब्रह्मतेज से संपन्न कई पुत्र
उसकी पत्नी से उत्पान किये उन्होंने।
यद्यपि रथीतर की भार्या से उत्पन्न हुए
गोत्र वही था होना चाहिए
जो रथीतर का था, फिर भी
अंगिरस ही कहलाये सब वे।
ये ही रथीतर के वंशिओं के
सर्वश्रेष्ठ पुरुष कहलाये
क्योंकि ये क्षत्रोपेत ब्राह्मण थे
सम्बन्ध था इनका दोनों गोत्रों से।
परीक्षित एक बार मनु के छींकने से
इक्ष्वाकु उत्पन्न हुए नासिका से
इक्ष्वाकु के सौ पुत्र थे
विकुक्षि, निमि और दण्डक सबसे बड़े थे।
एक बार राजा इक्ष्वाकु ने
अष्टका श्राद्ध के समय विकुक्षि को
आज्ञा दी कि पवित्र पशुओं का
श्राद्ध के लिए मांस लाये वो।
विकुक्षि ने वन में जाकर वहां
शिकार किया श्राद्ध योग्य पशुओं का
भूख भी उसे लग रही थी
और थक भी बहुत गया था।
इसलिए ये बात भूल गया कि
स्वयं नहीं है खाना चाहिए
मांस को उन पशुओं के
मारे गए हों जो श्राद्ध के लिए।
एक खगोश को खा लिया उसने
बचा मांस पिता को लाकर दे दिया
इक्ष्वाकु ने जब अपने गुरु को
उसे प्रोक्षण करने के लिए कहा।
तब गुरु जी ने बतलाया कि
मांस दूषित, श्राद्ध के अयोग्य ये
पुत्र की करतूत का पता चल गया
इक्ष्वाकु को गुरु के कहने से।
क्रोधवश अपने पुत्र को
निकाल दिया बाहर देश से
गुरु वशिष्ठ से ज्ञानविषयक
चर्चा की राजा इक्ष्वाकु ने।
फिर योग के द्वारा अपने
शरीर को त्याग दिया था
और प्रभु का भजन करके उन्होंने
परमात्मा को प्राप्त किया था।
पिता का देहांत होने पर
विकुक्षि वापस लौट आये थे
राजधानी लौट कर वो फिर
पृथ्वी का शासन करने लगे।
भगवान् की आराधना की थी
बड़े बड़े यज्ञ करके उन्होंने
और शशाद के नाम से वे
संसार में प्रसिद्ध हुए थे।
विकुक्षि के पुत्र का नाम पुरंजय
इंद्रवाह या ककुत्सथ भी कहते हैं उनको
जिन कर्मों के कारण उनके
ये नाम पड़े, अब उनको सुनो।
सतयुग के अंत में घोर संग्राम हुआ
देवताओं का दानवों के साथ में
इस संग्राम में देवता सभी
दैत्यों से हार गए थे।
उन्होंने अपना मित्र बनाया
वीर पुरंजय को सहायता के लिए
पुरंजय कहें, मैं युद्ध कर सकता
अगर इंद्र मेरे वाहन बनें।
पहले तो इंद्र ने अस्वीकार कर दिया
परन्तु फिर बात मान भगवान की
बड़े भारी एक बैल बन गए
विष्णु ने पुरंजय को अपनी शक्ति दी।
बैल पर चढ़कर पुरंजय
उसके कुकुद के पास बैठ गए
घोर संग्राम हुआ था फिर
वीर पुरंजय का दैत्यों से।
वाणों की वर्षा से उन्होंने
छिन्न भिन्न किया दैत्य सेना को
उनका नगर, घर, ऐश्वर्य सब
छीनकर दे दिया इंद्र को।
पुर जीतने के कारण ही
इनका पुरंजय है नाम पड़ा
इंद्र को वाहन बनाया इसलिए
इंद्रवाह भी नाम है इनका।
देवता दैत्य संग्राम में
बैल के कुकुद पर बैठे
इसलिए एक और नाम इनका
ककुत्स्थ भी इनको कहते।
पुरंजय का पुत्र था अनेना
पृथु हुआ था उसका पुत्र
पृथु का विशवरन्धी हुआ
और उसका पुत्र था चंद्र।
चंद्र का युवनाशव हुआ
शाबस्त पुत्र युवनाशव के
जिन्होंने शाबस्ती पुरी बसाई
बृहदशव शाबस्त के पुत्र हए।
उसके पुत्र कुवलयाशव् हुए
उत्तर ऋषि को प्रसन्न करने के लिए
धुन्धु नमक दैत्य का वध किया
अपने हजारों पुत्रों के साथ में।
इसलिए धुन्धुमार नाम पड़ा उनका
और धुन्धु दैत्य के मुख की आग से
उनके सब पुत्र जल गए
केवल तीन ही बचे थे।
दृढ़ाशव, कपिलाशव और भद्राशव
नाम थे उन तीनों पुत्रों के
दृढाशव के हर्यशव हुए
निकुम्भ का जन्म हुआ उनसे।
निकुम्भ के बर्हणाशव और कृशाशव
सेनजीत हुए कृशाशव के
युवनाशव पुत्र सेनजीत के
युवनाशव संतानहीन थे।
अपनी सौ स्त्रियों के साथ में
लेकर वो वन को चले गए
इंद्र देवता का यज्ञ कराया वहां
ऋषिओं ने पुत्र प्राप्ति के लिए।
एक दिन रात्रि में राजा को
बड़ी प्यास लगी, गए यज्ञशाला में
देखा ऋषि सब सो रहे हैं
सोचें कैसे फिर मुझे जल मिले।
मन्त्र से अभिमंत्रित जो जल वहां
पड़ा था वो उन्होंने पी लिया
सुबह जब ऋषि सोकर उठे
देखा कलश में जल ही नहीं था।
जब उन्होंने पूछा किसने पिया जल
पुत्र उत्पन्न करने वाला जो
मालूम हुआ प्रभु की प्रेरणा से
युवनाशव थे पी गए वो।
तब उन लोगों ने प्रभु के चरणों में
प्रणाम किया, और कहें वे
''धन्य है !, भगवान का बल ही
बल है वो ही वास्तव में।
प्रसव का समय आने पर
युवनाशव की दाहिनी कोख फाड़कर
उसमें से उत्पन्न हुआ था
एक बड़ा चक्रवर्ती पुत्र।
रोते देख उसे, ऋषि थे बोले
बालक रो रहा दूध के लिए
अब किसका दूध पियेगा
''मेरा पियेगा '', कहा इंद्र ने।
'' मंधाता, बेटा ! तू रो मत
यह कहकर राजा इंद्र ने
अपनी तर्जनी ऊँगली डाल दी
उस रोते हुए बालक के मुँह में।
पिता युवनाशव की भी मृत्यु न हुई
ब्राह्मण, देवताओं के प्रसाद से
उन्होंने फिर बड़ी तपस्या की
अंत में फिर वे मुक्त हो गए।
त्रसद्दस्यु नाम रखा बालक का
इंद्र ने, क्योंकि उससे
रावण आदि दस्यु सारे
उद्दिग्न और भयभीत रहते थे।
मान्धाता या तो त्रसद्दस्यु कहो उन्हें
वो एक चक्रवर्ती राजा हुए
सात द्वीपों वाली पृथ्वी का
शासन किया अकेले ही उन्होंने।
वो यद्यपि आत्मज्ञानी थे
आवश्यकता नहीं थी उन्हें कर्मकांड की
फिर भी उन्होंने बड़े बड़े यज्ञ कर
यज्ञस्वरुप भगवान् की आराधना की।
मान्धाता की पत्नी बिन्दुमती
शशबिन्दु की वो पुत्री थी
पुरुकुत्स, अम्बरीष और मुचुकुन्द
माँ बनी इन तीन पुत्रों की।
इनकी पचास बहनें थीं
वरण किया था उन सभी ने
अकेले ही सौरभि मुनि को
अपने पति के रूप में।
परम तपस्वी सौरभि मुनि जी
एक बार यमुना के जल में
डूबकी लगा तपस्या कर रहे
एक मत्स्यराज को देखा उन्होंने।
बहुत सुखी वो हो रहा था
अपनी पत्नियों के साथ में
विवाह करने की इच्छा जग गयी
तब सौरभी मुनि के मन में।
राजा मान्धाता के पास गए वो
एक कन्या मांग ली उनसे
राजा कहें, ब्राह्मण, ले जाइयेगा उसे
जो कन्या चुन ले आपको स्वयंवर में।
अभिप्राय समझ गए राजा का
सोचें, सूखा जवाब दिया राजा ने
क्योंकि मैं अब बूढ़ा हो गया
झुर्रियां पड़ गयीं हैं शरीर में।
बाल मेरे पक गए हैं
लगा है कांपने मेरा सिर भी
अतः कोई भी स्त्री हो
मुझसे प्रेम नहीं कर सकती।
अच्छी बात है, मैं अपने को
ऐसा सुंदर बनाऊंगा कि
राजकन्या तो क्या, मेरे लिए
ललायत हों देवांगनाएँ भी।
ऐसा सोच, समर्थ सौरभि ने
अपने को सुंदर बना लिया
अंतपुर के रक्षकों ने फिर
महल में उनको पहुंचा दिया।
पचास कन्याओं ने राजा की
पति चुन लिया सौरभि मुनि को
'' मेरे योग्य ये, तुम्हारे योग्य नहीं ''
आपस में लड़ने लगीं वो।
पाणिग्रहण किया उन सभी का
ऋग्वेदी सौरभि मुनि ने
तपस्या के प्रभाव से महलों में
पत्नियों संग विहार करने लगे।
सुंदर सुंदर वस्त्र धारण कर
स्त्री, पुरुष रहे सर्वदा सेवा में
गृहस्थी का सुख देख सौरभी मुनि की
मान्धाता भी आश्चर्यचकित हो गए।
उनका यह गर्व कि मैं
स्वामी सार्वभोम सम्पति का
सोरभि मुनि को देख जाता रहा
देखकर ये वैभव उनका।
भोगते रहे विषयों को सौरभि जी
परन्तु संतोष नहीं हुआ उन्हें
ऋग्वेदचार्य सौरभि मुनि
एक दिन स्वस्थ चित में बैठे हुए।
उस समय उन्होंने देखा कि
मत्स्यराज के क्षणभर के संग से
किस तरह आपा तक खो दिया
अपनी तपस्या है खो दी मैंने।
सोचें, मैं तो बड़ा तपस्वी था
अधः पतन तो मेरा देखो ये
ब्रह्मतेज मेरा नष्ट हो गया
एक मछली के संसर्ग से।
अतः जिसे मोक्ष की इच्छा
उस पुरुष को चाहिए कि
सर्वदा वो संग छोड़ दे
उन प्रनियों का, जो हों भोगी।
एक क्षण के लिए भी अपनी
इन्द्रियों को बहिर्मुख न होने दें
अकेला ही रहे वो, चित को
एकांत में, प्रभु में लगा दे।
आवश्यकता हो यदि संग करने की
भगवान प्रेमी महात्माओं का करे
पहले तपस्या करता अकेला मैं
फिर आया मछली के संग में।
विवाह किया पचास हो गया
फिर पांच हजार, संतानों के साथ में
माया ने मेरी बुद्धि हर ली
विषयों में सत्यबुद्धि होने से।
अब तो लोक परलोक के सम्बन्ध में
भर गया मन लालसाओं से
कि पार नहीं मैं पा सकता उसका
मुनि ऐसे विचार करने लगे।
सोचते सोचते घर में रहे कुछ दिन
फिर विरक्त हो वन में चले गए
वन की यात्रा की थी तब
उनकी पत्नियों ने भी साथ में।
घोर तपस्या कर सौरभि मुनि ने
परमात्मा में लीन किया अपने को
पत्नियां भी उन्हीं में लीन हो गयीं
उनको भी गति प्राप्त हुई उनकी।