श्रीमद्भागवत -१७४; पृषध्र और मनु के पांच पुत्रों का वर्णन
श्रीमद्भागवत -१७४; पृषध्र और मनु के पांच पुत्रों का वर्णन
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
सुद्युम्न जब वन में चले गए
सौ वर्ष तक तपस्या की
यमुना तट पर, वैवस्वत मनु ने।
श्री हरि की आराधना करके
दस पुत्र प्राप्त किये उन्होंने
उनके ही समान सब पुत्र
सबसे बड़े इक्ष्वाकु उनमें।
एक पुत्र का नाम पृषध्र था
नियुक्त किया वशिष्ठ ने उनको
गायों की रक्षा के लिए
रात्रि में बैठा करता था वो।
एक दिन रात में वर्षा हो रही
एक बाघ आ गया, गायों के झुण्ड में
सारी गायें इधर उधर भाग रहीं
एक को पकड़ लिया बाघ ने।
अत्यंत भयभीत हो चिल्लाने लगी
पृषध्र वहां आ गया सुनकर ये
रात के अँधेरे में उसने
तलवार चलाई बड़े वेग से।
समझा कि बाघ को मार दिया है
पर सिर कट गया था गाय का
बाघ का भी था कान कट गया
खून गिरा वहां और वो भाग गया।
रात बीतने पर पृषध्र ने
देखा कि मैंने तो गाय को मार दिया
जान बूझकर कुछ न किया पर
वशिष्ठ ने उनको शाप दे दिया।
इस कर्म से क्षत्रिय न रहो तुम
जाओ तुम शूद्र हो जाओ
अंजलि बाँध स्वीकार कर लिया
पृषध्र ने गुरु के शाप को।
नैष्ठिक ब्रह्चर्य व्रत को उन्होंने
धारण किया इसके बाद में
अत्यंत प्रेमी हो गए वो
भगवान् श्री वासुदेव के।
सारी आसक्तियां मिट गयीं उनकी
शांत हो गयीं वृतियां सभी
प्रायः समाधिस्थ रहते थे वो
विचरण करते पृथ्वी पर कभी कभी।
जीवन व्यतीत करते इसी तरह
एक दिन वे वन में गए
दावानल वहां धधक रहा था
अग्नि में वो लीन हो गए।
सबसे छोटा पुत्र मनु का कवि
विषयों से वह अत्यंत निःस्पृह था
किशोरवस्था में वन में चला गया
और वहां परमपद प्राप्त किया।
करूष नमक क्षत्रिय उत्पन्न हुए
एक मनुपुत्र करुष के
बड़े ब्राह्मणभक्त, धर्मप्रेमी वो
उत्तरायण के रक्षक थे वे।
धृष्ट के धाषर्ट नामक क्षत्रिय हुए
अंत में वे ब्राह्मण बन गए
नृग का पुत्र हुआ सुमति
उसके पुत्र भूतज्योति हुए।
भूतज्योति का पुत्र वसु था
प्रतीक था पुत्र वसु का
प्रतीक का पुत्र औधवान हुआ
औधवान का पुत्र औधवान ही था।
ओधवती नाम की कन्या उसकी
विवाह हुआ जिसका सुदर्शन से
मनु पुत्र नरिष्यन्त से चित्रसेन
उनसे ऋक्ष, ऋक्ष से मीठवान हुए।
मीठवान से कुर्च और उनसे
उत्पत्ति हुई इन्द्रसेन की
इन्द्रसेन से वीतिहोत्र और
वीतिहोत्र से सत्यश्रवा की।
सत्यश्रवा से उरुश्रवा और
देवदत्त की उत्पत्ति हुई उनसे
अग्निवेश्य नामक पुत्र उनके
जो स्वयं अग्निदेव ही थे।
आगे चलकर वो ही विख्यात हुए
कानीन और जातूकर्ण्य के नाम से
अग्निनेशयायन गोत्र जो
ब्राह्मणों में चला है उन्ही से।
नरिष्यन्त के वंश का वर्णन किया
अब वर्णन सुनो दिष्ट के वंश का
दिष्ट के पुत्र का नाभाग नाम था
अपने कर्म से वो वैश्य हो गया।
उसका पुत्र हुआ भलन्दन
और उसका पुत्र वतसप्रीति
वतसप्रीति का पुत्र प्रांश और
प्रांश का पुत्र हुआ प्रमति।
प्रमति को खनिज, खनिज को चाक्षुष
और उनके विवंशती हुए
विवंशति के पुत्र रम्भ हुए
और खनिनेत्र पुत्र रम्भ के।
दोनों बहुत ही धार्मिक हुए
खनिनेत्र के पुत्र अरंधम थे
उनके पुत्र अवीक्षित थे
और राजा मरुत हुए उनके।
अंगिरा के पुत्र संवर्त ऋषि जो
उन्होंने इनसे यज्ञ कराया
मरुत ने जो यज्ञ किया था
वैसा किसी का भी न हुआ।
उस यज्ञ के पात्र सभी
अत्यंत सुंदर, सोने के बने थे
सोमरस पी मतवाले हुए इंद्र
ब्राह्मण तृप्त हुए दक्षिणाओं से।
उसमें परसने वाले मरुदगण थे
सभासद विशवदेव थे
मरुत के पुत्र का नाम था दम
और दम के राजयवर्धन हुए।
उनके सुधृति और सुधृति के नर
नर के केवल, बन्धुमान केवल के
बन्धुमान से वेगवान हुए
उनसे बंधू, उनसे तृणबिन्दु हुए।
राजा तृणबिन्दु गुणों के भण्डार थे
अप्सरा अलम्बुषा देवी ने
उनको वरण किया जिससे कि
इडविडा कन्या और कई पुत्र हुए।
उत्तम विद्या प्राप्त कर विश्वा ने
अपने पिता पुलसत्य जी से
लोकपाल कुबेर को उत्पन्न किया
इन्हीं इडविडा के गर्भ से।
तृणबिन्दु की धर्मपत्नी ने
तीन पुत्र उत्पन्न किये थे
विशाल, शुन्यबन्धु और धूम्रकेतु
वंशधर हुए राजा विशाल थे उनमें।
विशाली नाम की नगरी बनाई उन्होंने
विशाल के पुत्र फिर हेमचंद हुए
हेमचंद के धूम्राक्ष, धूम्राक्ष के संयम
संयम के दो पुत्र हुए।
कुशाशव, देवल नाम था उनका
सोमदत्त कुशाशव के पुत्र थे
अशव्मेघ यज्ञों के द्वारा
भगवान् की आराधना की उन्होंने।
उन्होंने उत्तम गति प्राप्त की
योगेश्वर संतों का आश्रय ले
सोमदत्त के पुत्र हुए सुमति
जन्मेजय पुत्र सुमति के।