शोर
शोर
एकांत में भी
समय शोर करने लगता है
जब परेशान होता है
इंसान।
हताश हो
खामोश हो जाता है
जब वो परिस्थितियों पर
खीझ उठता है
अपने आस पास के लोगों पर।
समय की आवाजों पर
अपना नियंत्रण बनाये रखने की
कोशिशों में सोचता रहता है,
घूमता रहता है वह अपने अतीत में ,
कि कहाँ चूक गया था वह ?
सब देख भाल कर ही तो
चुना था सब कुछ,
कितने सलीके से चला रहा था वह
उसका हर प्यादा
जिंदगी की बिसात पर
समय को अपने इशारे पे नचाते
फिर कब और कैसे
एक लम्हे की बेवफाई
नजरअंदाजी
छीन ले गई उसका सबकुछ,
कैसे बस
वो एक मौका
फिसल कर गिर गया
उसकी कसी हुई मुट्ठी से
कहाँ हुई उससे कोई नादानी
जिससे रह गया अधूरा
उसका ख्वाब ,
उसकी ख्वाहिशें,
उसका वो आखिरी सा
सब कुछ।
फिर उसी
शोर भरे एकांत में
ठंडी गहरी सांसें भरते
कुछ न समझ आने पर
दिलो दिमाग को खाली कर देने पर
ध्यान आता है
हमेशा समय को मान देना था
समय के साथ चलना था
समय की मार से बचने को
समय की ही शरण लेना था
इन बातों को ही तो
इंसान को गांठ बांध लेना था
चलना था इसी दिखाई राह पर
सुनना था समय की पदचाप
और चलना था साथ साथ।
उसे रहना था तत्पर
अपने प्रयास की सर्वोच्च चेष्टा को
करना था नियमित मूल्यांकन
समय की कसौटी पर
बढ़ना था आगे
उसी आधार पर
वास्तविक
मंजिलों की ओर।
मगर वह
अपने अहम में,
भूल गया
समय कभी
किसी एक का नहीं होता,
स्थिर नहीं रहता
वह सबका होता है,
सब उसके हाथ होता है।
इंसान हरबार
परेशान इसीलिए ही होता है
क्योंकि वह
समय का सच
बार बार
भूलता है।
