शीर्षक -फर्ज के नाम पर
शीर्षक -फर्ज के नाम पर
शादी के सात फेरों में
गांठ के साथ बांध लिए थे
सारे हुनर अपने
बस अपना फर्ज निभाना याद रहा
गुजरती चली जा रही थी जिंदगी यूँ ही
एक दिन अचानक खुद से खुद की
मुलाकात हो गई
एक के बाद एक सारे हुनर
गिरह की गांठों को खोलते हुए
आ गए आज जमाने के सामने
शायद शब्दों को गढ़ना भूल चुकी थी
गीतों को गुनगुनाना भूल चुकी थी
संगीत तो सिर्फ कड़ाही की
छन-छन में ही नजर आता था
पर गुनगुना उठी आज "साथ तुम्हारा पाकर"
सज गया शब्दों का संसार
आते गए छुपे हुए हुनर
एक-एक करके सारे बाहर
ऐसा लगा जैसे आजाद हो गई चिड़ियाँ
बरसों क़ैद रही जो फर्ज के नाम पर