शहर
शहर
वो शहर मेरा, शरमाया सा,
अपनी धुन में ही भरमाया सा,
फ़िर कुल्हड़ वाली चाय पी के,
पड़ा दिन दोपहरी सुस्तया सा।
वो शहर मेरा, अलबेला था,
भरी भीड़ में भी अकेला था,
और ठण्डी की दोपहरी में,
बिना विकेट ही क्रिकेट खेला था।
वो शहर मेरा, ठहरा सा,
खड़ा शोर में भी बहरा सा,
और दीवानों की बस्ती में,
घूंघट में एक लिपट एक एक चेहरा था।
वो शहर मेरा, बड़ा सच्चा था,
उड़ती फिरती अफवाहों' का,
हर शाम बैठाता चर्चा था,
और हर महीने की कंगाली में
उधारी वाला खरचा था।
वो शहर मेरा, अंजाना सा,
थोड़ा अल्हड़, और मनमाना सा,
इन इमारतों से भी कहता हूं अक्सर
वही अपना था, तू बेगाना सा।