शहर
शहर
खो गया है अब
वो विस्तृत आंगन।
लगते थे जहां ठहाके,
फुर्सत के क्षणों में।
महकती थी रातरानी,
बेले की कलियाँ।
बच्चों के शोर से गुलजार
हुआ करती थी गलियाँ।
ओसारे पर तय हो जाते थे,
तीज-त्यौहार।
जब होती थी सबकी
एक में जीत-हार।
इस शहर ने छीन लिए
वो खुशी के पल।
एक और एक बनते ग्यारह,
बना बीता हुआ कल।
