शहर और गांव
शहर और गांव


शहर मैं बिजली है तो गांव मैं दिया है
शहर का बोतल बंध पानी, गांव मैं हमने अपने हाथों
से पिया है
गांव मैं इंसान आजाद पंछी है, तो शहर मैं है कैद मजबूर
शहर मैं गूंजता गाड़ियों का शोर है, तो गांव मैं पंछियों का सुर
शहर मैं दिखेंगे बड़ी इमारतें और मकान, तो गांव में हल और किसान
शहर मैं दिखेंगे गाड़ियाँ और सड़कें, तो गांव मैं खेत खलिहान
शहर मैं राजनीति और ओहदा है तो गांव में आत्मीयता का पौधा है
शहर में इंसान पिंजरे का कैद परिंदा है
तो गांव में इंसान असल में ज़िंदा है
शहर मैं जकड़ रही लोगों को घुटन की वो ज़ंजीर है
थके हुए रूह को राहत पहुंचाती गांव की नदी और मंदिर है
शहर मैं बहुत कुछ है पर फिर भी खलती एक अधूरी सी कमी है
शहर के रूखे सूखे अकेलेपन को मिटाने वाली, गांव मैं वो अपनेपन की नमी है।