।।शायद हम हंसना भूल गए हैं।।
।।शायद हम हंसना भूल गए हैं।।
कहाँ गयी वो महफिलें,
वो कहकहों की शाम लहराती,
नहीं दिखती अब हमें वो,
होंठों की लरजती मुस्कान,
और उनसे झांकती वो,
उनकी शरारती हंसी मदमाती,
इन सब की जगह अब,
हो गए गाल थोड़े लाल,
और नथुने फूल गए हैं,
इस नए दौर में ए दोस्त,
शायद हम हँसना भूल गए हैं।।
ठहाके तो बात बहुत
दूर की है,
एक गुनगुनी सी हंसी
भी नहीं है मय्यसर,
बदले दौर के उसूल निराले है,
यहां चेहरे सपाट नज़र आते हैं अक्सर,
हर नज़र बस टटोलती उदासी,
हंसी ज्यूं उधार की, निपट बासी,
उर में न जाने चुभ,
कौन से शूल गए हैं,
इस नए दौर में ए दोस्त,
शायद हम हँसना भूल गए हैं।।
मुस्कुराहटें अब सिर्फ सेल्फी,
लेने में ही बस आती हैं,
या तो फिर वो दूसरों को,
नीचा दिखाने या फिर उनके,
गिरने पे खिलखिलाती हैं,
दुनिया बस सफेद और स्याह हुई,
लाइक डिसलाइक की पहेली में,
मुस्कान चेहरे से जा छिटकी,
औऱ हुई कैद, बस हथेली में,
कितने रंगों से सराबोर थी जिंदगी,
अब खुदगर्ज़ी के पर्दे, झूल गए हैं,
इस नए दौर में ए दोस्त,
शायद हम हँसना भूल गए हैं।।
एक समय था जब हंसी,
उनकी शमशीर होती थी,
तिरछी मुस्कान बांकपन की,
कलेजे में तीर होती थी,
लगता हैं शायद किसी ने ,
फिर से उनको बहकाया है ,
संजीदगी की देकर खुराक,
खुशी का फिर किया सफाया है,
वो आज कल बस दिखाते फिरते,
की हो वो कितने मशगूल गए हैं,
इस नए दौर में ए दोस्त,
शायद हम हँसना भूल गए हैं।।