सफ़र सुख़नवर का
सफ़र सुख़नवर का
ख्वाबों के हैं लश्कर
ख़्यालों की पलटन
असबाब ये सफ़र के
कबाड़ साथ कितने
नज़मों में मिरी हैं
एहसास छिपे गहरे
कुछ इन में बसे हैं
मेरे अपने तज़ुर्बे भी
कुछ दिल की दुआएँ हैं
ख़ामोश सदाएं हैं
कुछ ख़ाली लिफ़ाफ़े हैं
कुछ मन के शिगूफे हैं
उधड़ी सी दीवारें हैं
गहरी हैं गुफाएं
कई मर्ज़े पुराने हैं
कभी देती शिफाएँ
कभी जश्न की रौनक हैं
कभी रौशन हैं फ़िज़ाएँ
कभी जीस्त की बातें हैं
कहीं बिख़री हैं क़ज़ाएँ
अनजान सफ़र है ये
राहें हैं जहाँ तन्हा
चलते हैं मुसलसल
साथ नहीं क़ारवां
न मंज़िल का ठिकाना
न जाने किधर जाना
बस चलते ही जाना
बस लिखते ही जाना।