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Sanjay Aswal

Abstract

4.3  

Sanjay Aswal

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साजिशें

साजिशें

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452


वो आज,

फिर उसी बंद कमरे में लौटा,

जहां बिस्तर पर उसका मृत जिस्म

निढाल सा पड़ा औंधे,

आसमान को टकटकी लगाए

उसकी दो आंखे

जैसे मानो अटक सी गई हो,

और सन्नाटा,

उसके दिल में जोर जोर से गूंज रहा था,

उसकी चीखें,

फड़फड़ाकर कमरे की दीवारों से

इधर उधर टकरा कर ख़ामोश हो गई थी,

उसका दर्द,

उसके ही गले में फंदा बनकर चुभ रहा था,

उसकी धड़कने भी अब,

धीरे धीरे उसका साथ छोड़ रही थी,

ये बहुत तकलीफ़ भरा अहसास था उसके लिए,

शायद ऐसा उसने कभी सपने में भी सोचा ना था,

सिर्फ वो और 

उस कमरे की दीवारें अब रो रही थी,

वो उठना चाहता था,

उस दर्द में भी,

पर ना जाने क्यों एक शब्द भी मुंह से नहीं निकल पाया उसके,

उसका टूटा दिल, 

दर्द से भरा जिस्म,उसकी उंगलियां,

उसका घुटा हुआ गला,

आंखें सब जानते थे, 

ये मौत है सिर्फ उसके लिए,

उसकी छटपटाहट, 

अब धीरे धीरे खामोशी ओढ़ रही थी,

और बाहर साजिशों का ताना बाना

बुनना शुरू हो गया था,

वो अब भी वहीं खड़े

साए में सब देख रहा था।



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