साइकिल और लॉकडाउन
साइकिल और लॉकडाउन
जब रुक गई
बड़ी बड़ी गाडियां !
थम गए पहिए।
बस रेल मेट्रो
ई रिक्शा सब
के पहिए रुक गए।
तब
निर्धन गरीब
परिवार हो,
गए बेरोजगार।
घर में जो आते
थे पैसे चार
वे भी बंद हो गए !
चूल्हे जो जलते
थे पेट की आग
को बुझाने के लिए।
वे भी मानो
बुझ गए
हरे हरे नोट
कब तक
साथ देते !
लॉकडॉउन ने
मानो चलती हुई
दुनिया को रोक
दिया।
ग़रीब दिहाड़ी
मजदूरों को
काम मिलना
बंद हुआ
ऐसे में कब तक
शहर में करते गुजारा।
और फिर उनके गाँव
ने उनको पुकारा।
आ लौट के आ जा
मेरे भाई तुम्हें ,
गाँव बुलाता है !
पर हरियाणा का
एक परिवार
था दुखी क्योंकि
पिता पुत्री को
भी जाना था
गाँव क्योंकि,
मकानमालिक
लगातार मांग
रहा था किराया।
पर ई रिक्शा चल
न रहा था
यही नहीं पिता
को पैसों का
अभाव खल रहा था !
पर पिता पुत्री
अब गाँव जाना
चाहते थे पर पहिए
सभी रुके हुए थे।
तभी पिता के पैर।
में आ गई चोट।
अब कैसे जाएँ !
शहर को छोड़!!
तब पन्द्रह वर्षीय।
पुत्री ने ठाना कि,
गुरुग्राम से बिहार
के दरभंगा साइकिल,
से पिता को ले
जाएगी और अपने
पिता की समस्या को
सुलझाएगी।
पिता ने जब सुना कि
पुत्री ने एक समाधान !
है चुना
तो पहले तो समझाया।
कि बिटिया 1200 कि मी
का सफ़र कैसे जा पाएँगे।
तो पुत्री ने कहा पापा,
धीरे धीरे रुक रुक के
जाएँगे !
और फिर अपनी साइकिल,
के पीछे पिता को बिठाकर।
पुत्री ज्योति ने एक बीड़ा ,
उठाया रोज 100 कि मी
की दूरी तय करके पिता,
को दरभंगा सकुशल पहुंचाया।
उसके हौसले को साइकिल
एसोसिएशन ने भी सलाम
पहुँचाया।
क्योंकि एक छोटी सी लड़की
ने अपने जज़्बे से
अपने साहस से
असम्भव को सम्भव
कर दिखाया !
लॉकडॉउन के दौर में
साइकिल के पहिए
ही चल रहे थे
उन इक्कीस दिनों में
जबकि चमचमाती गाडियाँ !
पार्किंग में धूल खा रही थी !
यह प्यारी साइकिल आम आदमी
का साथ निभा रही थी
वह उनके बोझ को ही नहीं।!
उनके सपनों को उनकी उम्मीदों।
को भी ढो रही थी
उनकी निराशा को आशा में बदल
रही थी।
