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Akriti Saxena

Abstract

2.5  

Akriti Saxena

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रोज़ थोड़ा थोड़ा

रोज़ थोड़ा थोड़ा

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ज़िन्दगी है दो पल की, जी रही हूँ रोज़ थोड़ा थोड़ा

ख्वाहिश है आसमान छूने की, उड़ रही हूँ रोज़ थोड़ा थोड़ा


दूर हो मंज़िल तो सफर लंबा तय करना पड़ता है,

राह हो मुश्किल तो ठंडी रेत बनना पड़ता है,


पाँवों तले धूप है, जल रही हूँ रोज़ थोड़ा थोड़ा

बर्फ की तलाश है, बह रही हूँ रोज़ थोड़ा थोड़ा


इश्क़ गर समंदर है तो डूब जाना पड़ता है

खुद की डूबी कश्ती को खुद ही पार लाना पड़ता है


अनजान डगर घोर अँधेरा, चल रही हूँ रोज़ थोड़ा थोड़ा

बारिश होगी एक दिन, भीग रही हूँ रोज़ थोड़ा थोड़ा।


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