ऋण
ऋण
प्रकृति हमारी माँ है, क्या ये बात आम है
हर जरुरत को पूरा करती है,बिन माँगे झोली भरती है
जिंदा होने का एहसास शायद हमें भी न हो
लेकिन प्रकृति बिन भूले हमें हर पल सांँसें अदा करती है।
फूलों ने अपनी खूश्बू और रंगों से हमें कितनी बार भरा
हमने उन्हें तोड़कर अपना मतलब पूरा करा
कभी मंदिर में चढाकर, कभी गुलदस्तों में सजाकर
झूठी और बनावटी सुंदरता की खातिर श्रृंगार बनाकर।
कब तक यूँ दोहन करते रहोगे ए मानव हृदयहीन बनकर
कुछ तो विचारों अपने अकृतज्ञ व्यवहार पर विचारकरकर
चलो अब सब मिलकर प्रकृति को पुनः हरा-भरा बनाएँ
कुछ तो अपने हिस्से का ऋण अब चुकाएँ।