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Alka Nigam

Abstract

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Alka Nigam

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रफ़ूगर

रफ़ूगर

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इक रफ़ूगर की तलाश तो

हमें भी है.....।

के कुछ ख़्वाब मलमल के

उधड़े उधड़े से हैं।

थी जो कामदनी

तारों की उसके ऊपर,

अमावस के चलते

कुछ स्याह सी हो गई है।

सुनहली सी धनक

कुछ उदास सी लगती है,

के रेशा रेशा होके 

बिखर सी गई है।

सावन की बारिश में

चाँदनी के धागे,

भीग के कुछ 

कमज़ोर हो गए हैं।

जो हों कुछ धागे

भोर की किरणों के,

तो ए रफ़ूगर

कभी गुज़र मेरी गली से।

कबसे तिजोरी में 

बंद जो पड़े हैं,

वो पत्थर मैं तेरे 

सदके उतारूँगी।

भर दूँगी झोली

गुलों से बगीचे के

तू आ तो इक बार

के ख़ैर-मक़्दम मैं करूँगी।



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