रात बदनाम हो गई
रात बदनाम हो गई
सुबह की अज़ान हो गई,
रात फिर कहीं गुमनाम हो गई।
छोड़कर ओस की धुंधली चादर,
सुबह फिर आम हो गई।
चौपाल में फुसफुसाया कोई,
"लगता है रात फिर बदनाम हो गई।"
सुर्खियां सुना रहा है कोई, चाय की चुस्कियां मारकर—
"बेचारी, निकली बड़ी रात थी!"
तभी त्योरियां चढ़ा, ज़ोर देकर बोला कोई,
"गई शैतान से फुँकी वो,
या लुटवाने गई आन थी?
जाने कैसी चालबाज़ी साथ थी,
आख़िर निकली ही क्यों रात थी?"
जाने कैसे ज़हरीले उनके अल्फ़ाज़ थे,
जिनको तोड़ आई मैं।
हिलाकर थोड़ा उनको,
अंदर तक सारा हिल आई मैं।
हँसकर कुछ रो आई मैं,
मिटाकर उनको, कुछ मिट आई मैं।
साथ उस रात के, खुद को भी—
बदनाम कर आई मैं।
