रामायण -अयोध्या काण्ड
रामायण -अयोध्या काण्ड
कुछ दिन बीते सभा सदों को
दशरथ ने था बुलवाया,
उत्तराधिकारी को चुनने का
ख्याल उन्हें था अब आया
बूढ़ा हो गया हूँ बहुत मैं
युवराज राम को बनाऊं अब,
गुरु वशिष्ठ जी और सभी गण
अगर राजी हो आप सब
कैकेयी की थी दासी मंथरा
जब उसको ये भनक लगी ,
स्वभाव से थी कुटिल बहुत वो
झट कैकेयी की तरफ भगी
मंथरा की बातों में आकर
कैकेयी भी कुछ भ्रष्ट हुई ,
कोपभवन में चली गयी वो
बुद्धि उसकी नष्ट हुई
दशरथ जब आये फिर मिलने
मिटाने उनके शिकवे गिले ,
कहा भरत को राज्य दे दो
राम को बस बनवास मिले
अगला दिन अभिषेक का दिन था
पर जब राम को पता चला,
पिता वचन का पालन होगा
उससे ऊपर क्या है भला
माताओं के और पिता के
चरण छुए और गले मिले,
राम लक्ष्मण और जानकी
सुमंत्र के संग, वन को चले
सुमंत्र को फिर विदा किया और
गंगा तट पर पहुंचे राम,
<p>केवट गंगा पार करावे
चरणामृत मांगें लें न दाम
मन्दाकिनी के तट पर सुंदर
चित्रकूट एक पावन स्थान ,
सुंदर झरने वृक्ष फूल हैं
ऋषि वहां रहते थे महान
सारे वन की शोभा सुंदर
हाथी हिरन मोर बहुत ,
राम लखन ने कुटिया बनाई
रहने लगे सीता सहित
सुमंत्र जब अयोध्या पहुंचे
रामचंद्र की बात को मान
उनको रथ पर देख अकेला
दशरथ ने तब त्यागे प्राण
भरत शत्रुघ्न वापस आये
मामा के थे पास गए,
माँ की करनी, पिता की मृत्यु
मन उदास पर कुछ न कहें
अगले दिन फिर सेना लेकर
रघुनाथ को मिलने चले,
रास्ते में प्रभु के साथी
केवट और निषाद मिले
भरत और सेना को देखा
लक्ष्मण को गुस्सा आया,
भाई हमारा है ये लक्ष्मण
राम ने उनको समझाया
पिंड दान फिर किया पिता का
चारों भाई मांगें दुआ,
अपनी खड़ायें दे दीं भरत को
राम भरत का मिलन हुआ