प्यास
प्यास
मुद्दतों बात आज मौका मिला उस
डूबते सूरज से गुफ्तगू करने का,
आस पास सब हो कर भी
एक अजब ख़ामोशी थी,
शाम के उस सुर्ख मंज़र में,
गूंजता वह कल कल करता पानी का शोर,
और चेहरे को रूक रुक के,
सहलाते ठंडी हवा के थपेड़े,
मैं समुन्दर के बीचों बीच थी और,
और ! वह ठीक मेरे सामने था,
सारा दिन जल के गरम कोयले सा
लाल हो चुका था,
समुन्दर का ठंडा दामन,
बाहें फैलाये इंतज़ार कर रहा था उसका,
और वह भी डूब कर उसमें,
घुल जाना चाहता था ।
अपनी थकान अपनी
प्यास बुझाना चाहता था,
कितना जलता और?
हद हो चुकी थी,
कितना झुलसाता और ?
पोह फूटते से झुलस रहा है,
अब बस कुछ देर और फिर,
उसकी प्यास बुझेगी,
रंग जायेगा पूरा समुन्दर उसके रंग में,
यह बेबाक सोच मेरी,
क्या सच मेरे दोस्त आफताब, तुम्हारे लिए है?
या खुद को तुम्हारी जगह,
रख के सोच रही हूँ,
कुछ अनकहे अधूरे ख्वाबों में,
झुलस रही हूँ कब से,
कहाँ है वह मेरा समुन्दर ?
बहुत थकान हो गयी है,
बढ़ी प्यास लगी है।