प्यास
प्यास
तू एक शहर जैसा था
मैं तो बहती उसमें एक नदी
तू लोगों को समा लेता अपने अंदर
मैं तो ढूंढने चली थी एक समंदर
तू इस बस्ती में भी किसी अपने को ढूंढने चला
मैं भी आयी थी उस घाव पर लगा ने दवा
जब किनारे पे देखा तूझे पहली बार
लगा के अब हो चुकी थी मेरी हार
तेरे शहर में क़दम रखा था अब
ना जाने क्यूँ लगा सब संभाल लेगा रब
तेरा शहर कुछ अपना सा लगने लगा था
जो भी था एक सपने सा लगने लगा था
पर था तो तू एक सपना ही
जिसे कभी तो होना था पूरा भी
काश ठहर जाता दो पल और साथ
तो कर लेती जी भर कर तुझ से बात
जान कर भी तू जान ना पाया
एक नदी की ये प्यास बुझा ना पाया
जो मुझ में था वही ढूंढने चली थी
उस तितली की तरह में भी मनचली थी
जो कोई ना सीखा सका वो तू सीखा गया
ख़ुद से प्यार कैसे करते है वो तू बता गया