प्यार नहीं आकर्षण था
प्यार नहीं आकर्षण था
प्यारा सा केवल लगता था।
जब बात समझ ये आई मुझ को,
तुझ को समझाने बैठी मैं,
कि प्यार नहीं आकर्षण है,
गहरी यारी का दर्पण है।
मगर जज़्बात समझ न पाया तू,
बेमतलब ही भरमाया तू,
पागलपन को ही प्यार कहा,
पावन रिश्ता बदकार दिया।।
माना मैं हूं कमज़ोर ज़रा,
रिश्ते-नातो की बूझ नहीं पर,
ये रिश्ता मैंने निभाया था,
बेशकिमती थे जो पल,
उन पल को भी संवारा था।
हाँ प्यार संभाल न पाई मैं
तेरे बदले उन रूपों को
इक क्षण में जान न पाई मैं।।
इतनी रात किधर निकली?
इतनी रात को क्यूं लौटी?
<p>किसके साथ तू बैठी थी?
थी किसके साथ तू घूम रही?
अरे कौन था वो लड़का जिसकी
बातों पर थी तुम फूट हँसी ?
बस... सवालात के हवालात में
फूट-फूटकर रोई थी,
चैन सुकून के आलम में इक
पल भी न मैं सोई थी।।
हर दफा रवैये पे अपने तूने
मांगी है माफ़ी, हर दफा रवैये
पे तेरे मैंने बक्शी है माफ़ी।
पर बार-बार तू बेकरार वही
ग़लती दोहरा जाता था,
हर शाम-सवेरे मुझको बेबस,
तन्हाई ने आंका था।।
थक चुकी हूं, टूट चुकी हूं इस
बेतुक अंजान सफ़र में,
रो-रो कर आँसू भी सूखे
दफ़न गए अदृश्य कफ़न में।।