पुरुष भी तो जलते हैं
पुरुष भी तो जलते हैं
इस अग्नि के फेरे में पुरुष भी तो जलते हैंं
स्त्री तकलीफ में होती हैं माना,
मग़र पुरुष भी कहाँ सुकून से पलते हैंं !
इस अग्नि के फेरे में पुरुष भी तो जलते हैंं
कुछ पुरुष होते हैं जो दर्द को अन्दर ही अन्दर पीते हैं,
अपने बच्चों का चेहरा देखकर उसी में वो जीते हैं !
स्त्री रो कर बाह लेती हैं अपने दर्द को,
वही पुरुष रोने भी कह बैठ पाता है
क़भी बच्चो में देखता है अपने अक्श को,
तो क़भी आईने में खोजता फिरता हैं खुद को !
इस अग्नि के फेरे में पुरुष भी तो जलते हैं
तकलीफ होती हज़ार गुना जब माँ कहती हैं की
मेरा बेटा अब मेरा बेटा नहीं रह
बस किसी का पति बन गया हैं, इस उलझन को वो कैसे सुलझाये
अपनी माँ को वो क्या बतलाये की वो क्या था और क्या बन के रह गया !
इस अग्नि के फेरे में पुरुष भी तो जलते हैं
हर पुरुष की नहीं ये कहानी,
मग़र हैं बहुत से जो इस दर्द से हैं गुजरते,
एक कोने में बैठ कर अपनी ज़िन्दगी की डोर को
हाथों में लेकर घन्टो बैठ कर देखते हैं,
फिर उसी डोर को सीने से लगा कर
ज़िम्मेदारियों को उठाने वो घर से निकलते हैं !
इस अग्नि के फेरे में पुरुष भी तो जलते हैं।