पत्थरों का शहर
पत्थरों का शहर
पत्थरों के इस शहर में
अहसास की क़ीमत कुछ भी नहीं
ओढ़े हुऐ है लबादे सुर्ख़ रगों के
पर रूहों पर तो लिबास ही नहीं
चल इस शहर इस बस्ती से दूर ए दिल
जहाँ सिर्फ़ हम हो दूजा ना ,कोई हो
ना हो दर्द की स्याही का आलम,
बस सकूने -दिल हो।
क्या समझेगा वो !
समझेगा किया वो !
अलफा़जों के मेरे
वाक़िफ़ ही नहीं जो दर्द से मेरे।
ख़फ़ा हूँ क्यूँ ख़फ़ा हूँ मैं,
शख़्स वो इक जानता ही नहीं
गिला करे तो किससे करे ए शमा़
यहाँ तो हर इन्सान ही पत्थर सा है।