पर्यावरण
पर्यावरण
गिल्लू की परछाई।
चंचल अस्थिर गिलहरियां,
जो मोटी मोटी गोटियों
सी आंखों को,
मटका कर सब हाल सुना जाती हैं।
वो आज हाथ बांधे तिरस्कृत सी
दो घूँट पानी के लिए,
कतार भाव से देख रही,
जो कभी मनुष्य की आहट से
पल में छुप जाती पेड़ो की ओट
में वो,
चंचल चपल आज पानी से हार गई।
नन्ही शरारती, अठखेलियां करती
डाली पे उल्टा झूला झूलें।
जिसे देख कभी महादेवी जी ने
रची थी गिल्लू,
ये उसकी ही परछाई है।
जो पत्तों के झुरमुट में
गायब हो जाती है।
जो खेल अनोखे दिखाती है
करतब करना कौतुहल से
सराबोर करना।
आज सुहाया नहीं तेरा पानी की भीख,
मांगना।
शर्म खुद पे आती है कहीं
बचा होता गर,
पानी तो तुम
वही प्यास बुझाती।
तुम वही हो न
जिसने राम का काज
सवारा,
भिगो शरीर को समुद्र में
पत्थरों में रेत भरा।
जिसे देख
राम ने सहर्ष हाथ फेरा।
तुम तो हो प्रकृति स्वरूपा
माफ हमें कर दो।
जो राम काज में आतुर थी।
वो हाय! प्यास से व्याकुल थी।
यह धरा अब रहने योग्य नहीं
तुम्हारे,
हम सब हैं भागी इस पाप के।
जो जाने अनजाने कर डाले
माफ करो हे! मनमोहक जीव,
फिर खेलो तुम वन उपवन
कभी न आओ प्यासी।