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Anita Sharma

Abstract

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Anita Sharma

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प्रविचेतन

प्रविचेतन

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थाह लेनी बाकी है

अंतर्मन की

कुछ अतृप्त पाया है

मैंने उसमें...जो

कुलबुला रहा है

अन्दर ही

अनंत भावों में होते 

संवाद सा 

सर्द मौसम की

भाप सा

इक टपकते आंसू के

आलाप सा

पतझड में झरते

सन्ताप सा

हज़ारों पुण्यों में छुपे हुए

अनजाने पाप सा

किसी बेमेल कफ़न के

नाप सा

तर्क वितर्क करता

रहता है खुद में;

फिर भी अव्यक्त है,

गिरह खोलनी बाकी है

कि थाह लेनी बाकी है!



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