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Dhirendra Panchal

Abstract

3.7  

Dhirendra Panchal

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प्रतियोगी

प्रतियोगी

1 min
337


बेसुध पड़ी थी लाश तुम्हारी, मैं बैठा था कोने में।

डर लगता था भैया तेरे बिना अकेले सोने में।

कहाँ गए दिन चार हमारे चाय पे चर्चा नीली बत्ती।

दाल भात चोखा से चलती थी अपने जीवन की कश्ती।


इलाहाबादी गली मोहल्ले सबकी आँखे भरी हुई थी।

कमरे में देखा था मैंने लौकी भिन्डी पड़ी हुई थी।

अदरक वाली चाय की खुश्बू का अभिवादन कौन करे।

विशेषज्ञ मैं रोटी का था दाल में तड़का कौन भरे।


इतनी जल्दी हार गए क्यों हमको साहस देते थे।

डर लगता था तुमको तो क्यों चुपके चुपके रोते थे।

गर हमको भी बतलाते तो संग में दोनों रो लेते।

काँटों वाली पगडण्डी पर फूल की क्यारी बो देते।


फटी सीट साइकिल की मेरी मुझको भी उपहास मिला था।

तुम्ही अकेले नहीं थे जिसको अपनों से परिहास मिला था।

शादी का तुम न्यौता दोगे वादे तुमने तोड़ दिए।

पंखे को वरमाला डाला बाकी रिश्ते छोड़ दिए।


कहते थे जब लेख तुम्हारी दरबारों में जाएगी।

जीवन की रंगोली अपनी अखबारों में आएगी।

हार गए या जीत गए तुम बस इसकी परिचर्चा थी।

अखबारों के छोटे से हिस्से में तेरी चर्चा थी।


लौट आओ तुम सुनो दुबारा चावल की गठरी लेकर।

आँखों में सपने लेकर तुम बाबू की पगरी लेकर।

लाखों की है भीड़ यहाँ पर सबको कई समस्या है।

इच्छाओं पर धैर्य का पहरा सबसे बड़ी तपस्या है।


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