प्रतिफल
प्रतिफल
अपने ही अपने हित रचना
अब चक्र व्यूह की करते हैं ।
कितना ज्ञानार्जन किया मगर
लोभी जन कहाँ सुधरते हैं ।।
वो चक्र व्यूह जो पार करे
अभिमन्यु सी सामर्थ्य नहीं ।
दृढ़ निश्चय का प्रयास प्रिय वर
जाता है कृतिम व्यर्थ नहीं ।।
अब शब्द बाण से लगते हैं
जो अन्तर्मन को वेध रहे ।
जिनको हृद स्थल सौंप दिया
वो ही अब हमको खेद रहे ।।
जिन्दगी जुआ सी लगती है
कभी हार गये कभी जीत गये ।
बदलते समय को देख सभी
मेरे मन के मनमीत गये ।।
सोचा ना था कि जीवन में
इस तरह हमारे छल होगा ।
अपनत्व बीज जो बोया था
उसका ऐसा प्रति फल होगा ।।