पृथ्वी की पुकार
पृथ्वी की पुकार
एक समय से मजबूर हूँ
मैं उस कहर की मुल्ज़िम ज़रूर हूँ
वक्त ने एक ऐसा सितम देखा
हर शख्स के बस मुँह पर कफ़न देखा
मारना था एक अनजान सितमगर को
जिसको मैंने काफिरों की जमात में देखा
सिलसिला ख़त्म न होता था
ये दिल हर दिन सिसक कर रोता था
कोरोना का नाम दिया
चीन ने अपने लोगो को ही मार दिया
सत्ता की ये कैसी लड़ाई थी
अपनों पर बन आयी थी
खांसी ज़ुकाम मौत ला रहा
तापमान तेजी से बढ़ा जा रहा
मैं दृष्टा हूँ , मैं ही वाचक
मैं याचक भी और शासक भी
मैं विश्व की धुरी भी,
तानाशाहों की चालों को समझती मैं
अब कुछ डरी और सहमी भी।