STORYMIRROR

Richa Baijal

Abstract

4  

Richa Baijal

Abstract

पृथ्वी की पुकार

पृथ्वी की पुकार

1 min
404

एक समय से मजबूर हूँ 

मैं उस कहर की मुल्ज़िम ज़रूर हूँ 

वक्त ने एक ऐसा सितम देखा 

हर शख्स के बस मुँह पर कफ़न देखा 


मारना था एक अनजान सितमगर को 

जिसको मैंने काफिरों की जमात में देखा 

सिलसिला ख़त्म न होता था 

ये दिल हर दिन सिसक कर रोता था 


कोरोना का नाम दिया  

चीन ने अपने लोगो को ही मार दिया 

सत्ता की ये कैसी लड़ाई थी 

अपनों पर बन आयी थी 


खांसी ज़ुकाम मौत ला रहा 

तापमान तेजी से बढ़ा जा रहा 

मैं दृष्टा हूँ , मैं ही वाचक 

मैं याचक भी और शासक भी 

मैं विश्व की धुरी भी, 


तानाशाहों की चालों को समझती मैं 

अब कुछ डरी और सहमी भी।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract