प्रेमानुराग
प्रेमानुराग
प्रेम सुन्दर भाव है
यही मानव स्वभाव है।
प्रेम अंतर का उजास है
प्रेम ही एहसास है।
अब प्रेम लुप्त हो रहा है
मदन ही तो बढ़ रहा।
मन भी अब बदल रहा
तन में ही उलझ रहा।
तन से तन हैं मिल रहे
कामक्रीडा कर रहे।
प्रेम कलुषित हो रहा
प्रेम खंडित हो रहा।
प्रेम की व्याख्या नहीं
एहसास है ये आख्या नहीं
पुनीत प्रेम है, मदन नहीं
नेह विमल है मलिन नहीं।
प्रेम शुद्ध मन का भाव है
जिसमें काम का न वास है
वही प्रेम पूज्य है
जिसमें अमलता उजास है।