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Ruchika Rai

Abstract

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Ruchika Rai

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प्रेम मेरी देहरी पर आया

प्रेम मेरी देहरी पर आया

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न जाने कब कैसे दबे पाँव

प्रेम मेरी देहरी पर आया।

जब निराशा के घने तम में

आशा का कोई जुगनू नहीं बचा था।

उसने आकर मेरे गालों को

एक थपकी दी।

दिया बोसा

मेरे माथे पर 

और मुझे सहलाया।

उम्मीद का एक सिरा पकड़कर

दूसरे को मुझे थमाया

और बताया जीवन खूबसूरत है

तमाम निराशाओं के बीच।

न जाने कब कैसे

बंद दिल के दरवाजों को तोड़

प्रेम मेरे दिल में समाया।

स्वयं से प्रेम,

स्वयं को सँवारने की जुगत

मेरे मन को है सिखाया।

कोमल कल्पित कल्पनाओं को

जी कर के सदा ही

जीवन का रहस्य मुझको सिखाया।

खुशी में मुस्कुराने की वजह देकर,

दर्द में भी धीरज धरना बताया।

न जाने कब कैसे 

आहिस्ता से प्रेम न आकर जीने का

अलग अंदाज बताया।


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