प्रेम का अर्थ।
प्रेम का अर्थ।
प्रेम त्याग ही तो होता हैं,
मृत्यु को भी हराकर जब जन्म देती है मां
एक संतान को,, त्यागती है वो
उस मृत्यु के भय को भी सिर्फ ,
नन्हे से उस नव जीवन के प्रेम के लिए ही,
हर उल्लहाना,हर तंज़ सहकर भी मुस्कुराती है,
त्यागती ही तो है वो अपना आत्मसम्मान तक,
ताकि सम्मान से जीना सीखा सकें अपने अंश को,
आत्मनिर्भरता की नींव दे सकें उस नव जीवन को,
जब हड्डियों को कंपा देने वाली सर्दी में,
आग की ज्वाला जैसी रक्त को सूखा देने वाली ताप में,
संसार का हर सुख त्याग कर पिता,
सिर्फ संतान की खातिर निकल पड़ता है जीवन के नुकीले पथरीले कटीले रास्तों पर ताकि उसके अंश को मिल सकें संसार का हर सुख सिर्फ अपने पिताप्रेम के लिए,,
त्याग ही तो करता है अपनी अनगिनत इच्छाओं का,
अपने हर सुख का ,
प्रेम का सही अर्थ जानते हो अगर,
तो उसकी मर्यादाओं को भी जानो,
प्रेम स्वार्थ नहीं होता है कभी,
निस्वार्थ त्याग ही सच्चा अर्थ है प्रेम का,
जो चाहता है अपने त्याग और बलिदान का सम्मान मात्र,
प्रेम का प्रतीक ही तो थे राधा- कृष्ण
जिन्होंने सर्वप्रथम माता- पिता के प्रेम को ही निभाया,,
अपने कर्तव्य को निभाने के लिए एक दूजे तक को भुलाया।
मात्र भ्रमित प्रेम पाश में बंधकर ना करो जीवन नष्ट
प्रेम सदा निर्माण करता है ना करता है विध्वंस।
