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विनोद महर्षि'अप्रिय'

Abstract

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विनोद महर्षि'अप्रिय'

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पोटली

पोटली

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आंगन स्वर्ग सा है मेरा,

खट्टी मीठी तकरार का डेरा।

इक दूजे से चाहतों का फेरा,

अपनो पर टिका है जीवन मेरा।


एक आहट को तरसती अँखियाँ है,

उम्मीदों पर है तात का जीवन ,

इस अंधियारे की भागमभाग में 

मात पिता है बस मेरी खुशियां।


कभी खुद से , कभी अपनो से,

कभी अभावों से , कभी दुखों से,

बढ़ती रहती है उलझने।

मैं सज्जाता सदैव घर मेरा,

मीठे मीठे सुखद सपनो से।


बरगद की छांव सी अग्रज बहन

नीम की निमोली से अनुज बहन

प्यार तकरार हर दिन है होती यहां

मस्ती में झगड़ा हम करते सहन।


पुराने पीपल सा है इक भाई

बचपन में झगड़ते लाज ना आई

अब अदब हम दिखाते हैं

उनसे बहुत शरमाते हैं।


घर नहीं एक पुरानी संदूक है

पापा का प्यार भरी हुई बंदूक है

पोटली में समेटे अनुपम रिश्ते हैं

प्यार से इस घर में हम बसते हैं।


राहों में रोड़े आते है,

मेहनत से मंजिले पाते है।

गर गमो में हंसना सीखें 

चंहु और खुशियां पाते हैं।


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