फिर से सहने लगी
फिर से सहने लगी


कैसे वो इतना शर्मा लेती है।
झुकी आँखों से इतरा लेती है,
वो देकर ख़ुशियाँ दूसरों को,
दर्द अपना सीने में दबा लेती है।
लोग पूछते है उससे ...
क्या तुम कभी उदास होती हो?
जब शाम अकेले समंदर के
पास रोती हो,
वो टूट कर फिर ऐसे बयान
करती है,
हँसती आँखों से आँसुओं को
बेजान करती है।
फिर एक सवाल वो तुमसे भी
करती है,
क्या तुम कभी वीरान होते हो?
बैठकर यादों में उसकी खुद से
अंजान होते हो?
एक दास्तां चलो मैं सुनाना
चाहती हूं की..
हाथ मिला कर छोड़ देना,
फिर उसका मुंह मोड़ लेना,
सपने सजा कर तोड़ देना,
फिर टूटे दिल को जोड़ देना,
ऐसी मोहब्बत वो करता था,
मुझे कहां खोने से वो डरता था।
मैं अनजान थी दूरियों के पैगाम से,
जो आने वाली थी बड़ी ही आराम से,
जब भी मैं रोती थी वो सीने से लगा
लेता था,
ऐसे मुझ को अपना यूंही फिर से
बना लेता था,
एक दिन यूं हुआ के बस हद ही हो गई,
सारी तमन्ना और ख़ुशियाँ रद्द ही हो गई,
मैंने बोल दिया..
तू ख़ुदा के लिए छोड़ ही दे,
फिर मेरे अरमान चाहे तोड़ ही दी,
क्यों मुझसे झुठी मुहब्बत तू करता है,
क्या ख़ुदा से नहीं तू डरता है?
बस इतना कहते ही अश्क बहने लगे,
उसकी हर खता को फिर से सहने लगे..