पगडंडियां
पगडंडियां
हां !थोडा़ अफसोस तो है
कि नहीं बनाईं पगडंडियां
मेेरे लिए किसी ने
जिन पर चलकर
पा लेती मंजिल-ए-मुकां
राह मेरी हो जाती
थोडी़ सी आसां
खैर ! हुआ जो हुआ
मैं मातम नहीं मनाऊंगी
मैं खुद बनाऊंगी
अकेले ही
एक के बाद एक
कई पगडंडियां
मंजिल के लिए सीढ़ियां
जिन पर मुस्कराकर चलें
आने वाली पीढियां
ताकि फिर कभी
अफसोस न हो
मुझ जैसा किसी को
रोष ना हो
तुम चाहो तो आओ
चले आओ
जरा!
मेरा हाथ बंटाओ
और बनाओ
पगडंडियां
एक के बाद एक
अनेकों पगडंडियां।