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Anjneet Nijjar

Abstract

2.5  

Anjneet Nijjar

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पड़ाव

पड़ाव

2 mins
314


उम्र के इक पड़ाव को लाँघ

कर बढ़ चली ज़िंदगी,

कितने रंग, कितने रूप


दिखाती चली यह ज़िंदगी,

कल ही की तो बात थी,

जब समझ ने अपनी होंद बताई थी,

चिड़िया कैसे उड़ी आसमान में ?


पत्ती कैसे टहनी पर आई थी ?

समझ काल का चक्र आया ही था,

कि यौवन ने ली अंगड़ाई थी,

शरारतें अब घबराई सीं थी,


बचपन उड़ा पंख लगा कर,

जिस चिड़िया की उड़ान थी भाती,

अब उसके पर लुभाने लगे,

रंग-बिरंगे फूल बगिया में ही नहीं,


मन में भी मुस्काने लगे,

लगने लगा इंद्रधनुष ज़िंदगी के जैसे,

पंख नए नए उड़ानों में आने लगे,

रूई सी हल्की तब लगी ज़िंदगी,

नए नए चेहरे भाने लगे,


दिल ने चुना अपने जैसा कोई,

नयन सतरंगी सपने सजाने लगे,

अल्हड़ता हुई समाप्त,

पंछी धरातल पर आने लगे,

यथार्थ का कठोर और पैना चेहरा,बदलते लोग,


ज़िंदगी की असलियत समझाने लगे,

मौसम सी करवट लेती ज़िंदगी,

डाल पर अब पीले पत्ते आने लगे,

मुँह पर महीन रेखाएँ,


सिर पर सफेद बाल जड़े जमाने लगे,

अनुभव के सुनहरी रंग,

चेहरे की परिपक्वता बढ़ाने लगे,

समझ को सही-गलत समझने में ही जमाने लगे,

तूने कसा हर कसौटी पर हम को,


उम्र के इस दौर में,

अब हम भी तुझे आजमाने लगे,

ऐ ज़िंदगी! हम भी तुझे आजमाने लगे

ज़िन्दगी हमने तुझे खुलकर जिया।

कुछ गिले शिकवे कुछ रंजिश़ें भुलाकर,


कुछ दोस्तों के फ़रेब खाकर,

कुछ मायूसिय़त में,

कुछ मसरूफ़़ियत में,

कभी तूने हमे आज़माया,

कभी हमने तुझे श़िद्दत से आज़माया।

इस दौर में हम भूल चुके क्या खोया ?

क्या पाया ?


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