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पार्थ कृष्ण संवाद- भाग 2

पार्थ कृष्ण संवाद- भाग 2

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कृष्ण ने जब पार्थ को,

कुछ व्यथित भयभीत देखा,

की उसके चमकते भाल पर,

खिंच आयी थी चिंता की रेखा।


व्यर्थ ही घबरा रहा था,

मोह बंधन में उलझा जा रहा था,

कर्म को वो त्यागकर,

मिथ्या वाद में खोता कहीं।


कालदृष्टा कृष्ण ने तब,

पार्थ को उत्तर दिया यूं,

उसके सारे प्रश्न का,

समाधान कुछ प्रस्तुत किया यूं,


रण के इन तूफानों से डरकर,

कब तक तुम भागोगे बचकर,

एक दिन तुमको लड़ना होगा,

ज़िद में आना अड़ना होगा।


तलवार उठानी होगी कर में,

विशिख साधने होंगे रण में,

चहुँ ओर निगाहें करनी होंगी,

निर्णय लेने होंगे क्षण में।


मोह सभी तुम्हें त्यागने होंगे,

बंधन सभी काटने होंगे,

धर्म स्थापना के इस रण में,

परिजन पर बाण साधने होंगे।


इन विषम कठिन परिस्थितियों से बचकर,

कब तक तुम भागोगे बचकर,

एक दिन तुमको लड़ना होगा,

ज़िद में आना अड़ना होगा।


सब रिश्ते बंधन मोह पाश से,

जग माया की छद्म आस से,

बचना तुम्हें निकलना होगा,

स्थित रहकर लड़ना होगा।


नहीं भूत की यादें होंगी,

नहीं भविष्य की चिंताएं,

मन में एक विश्र्वास सुदृढ़ हो,

निर्णय में ना शंकाएं।


इन चिंता-शंकाओं से घिरकर,

कब तक तुम भागोगे बचकर,

एक दिन तुमको लड़ना होगा,

ज़िद में आना अड़ना होगा।


धर्म-अधर्म के वाद-विवाद का,

ये उपयुक्त समय स्थल नहीं,

ये रण है पार्थ यहां लड़ना ही,

धर्म तुम्हारा कर्म यही।


जो भी प्रस्तुत हुआ समय,

स्वीकार उसे करना होगा,

ये जीवन का जो चक्र सखे,

उससे तुम्हें निकलना होगा।


इस छद्म मोह चक्र में फंसकर,

कब तक तुम भागोगे बचकर,

एक दिन तुमको लड़ना होगा,

ज़िद में आना अड़ना होगा।


तुम ये ना समझो जो भी घटा,

वो खेल कोई तुमने रचा,

तुम तो केवल खेल खेलते,

परिदृश्य सृष्टा रच रहा।


इसलिए इस धर्म - नियति का,

बोझ उसको सौंप दो,

तुम कर्म में तल्लीन होकर,

फल की चिंता छोड़ दो।


रण की विडंबना भी,

जगत का प्रारब्ध है,

गाण्डीव फ़िर धारण करो ,

कि पार्थ ये ही धर्म है,

कि पार्थ ये ही धर्म है।


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